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5959595EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE PO अहिंसात्मक वीतरागताः योग-साधक का परम लक्ष्य
[रागादि की उत्पत्ति ही हिंसा है और वीतरागता ही अहिंसा है (देखें-सूक्ति संख्या 1 व 3, इस ग्रन्थ में पृष्ठ संख्या 1)। साधु ध्यान-योग साधना के क्रम में वीतराग को ध्यान-विषय बनाता है और वीतरागता रूपी लक्ष्य को प्राप्त करने का यत्न करता है। उसका सम्बल होता है-साम्य भाव जो वीतरागता का ही एक पर्याय है। इस प्रकार उसका साधन व साध्य, दोनों ही वीतरागता/अहिंसा रूप लिए होते हैं। इस सन्दर्भ में उपयोगी कुछ विशिष्ट शास्त्रीय वचन यहां प्रस्तुत हैं :-]
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(1122) मनःशुद्धयैव कर्त्तव्यो राग-द्वेष-विनिर्जयः। कालुष्यं येन हित्वाऽऽत्मा स्वस्वरूपेऽवतिष्ठते॥ अस्ततन्द्रैरतः पुम्भिनिर्वाणपदकांक्षिभिः। विधातव्यः समत्वेन रागद्वेषद्विषज्जयः॥
___(है. योग. 4/45,49) आत्मस्वरूप भावमन की शुद्धि के लिए प्रीति-अप्रीतिस्वरूप राग-द्वेष का निरोध करना चाहिए। अगर राग-द्वेष उदय में आ जाएं तो उन्हें निष्फल कर देना चाहिए। ऐसा है करने से आत्मा मलिनता (कालुष्य) का त्याग करके अपने स्वरूप में अवस्थित हो जाता
है। अत: निर्वाणपद पाने के अभिलाषी योगी पुरुषों को तन्द्रा (प्रमाद) छोड़ कर सावधानी 卐 के साथ समत्त्व के द्वारा रागद्वेषरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करना चाहिए।
如听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听
11123]
वीतरागो विमुच्येत, वीतरागं विचिन्तयन्। रागिणं तु समालम्ब्य, रागी स्यात् क्षोभणादिकृत्॥
__(है. योग. 9/13) श्री वीतरागदेव का ध्यान करने वाला स्वयं वीतराग हो कर कर्मों या वासनाओं से मुक्त हो जाता है। इसके विपरीत रागी देवों का आलम्बन लेने वाला या ध्यान करने वाला काम, क्रोध, हर्ष, विषाद, राग-द्वेषादि दोष प्राप्त करके स्वयं सरागी बन जाता है।
[जैन संस्कृति खण्ड/454