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(1107) रुदस्स णं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पण्णत्ता, तं जहा- ओसण्णदोसे, बहुदोसे, अण्णाणदोसे, आमरणंतदोसे।
(ठा. 4/1/64) रौद्रध्यान के चार लक्षण कहे गये हैं, जैसे1. उत्सन्नदोष- हिंसादि किसी एक पाप में निरन्तर प्रवृत्ति करना। 2. बहुदोष- हिंसादि सभी पापों के करने में संलग्न रहना। 3. अज्ञानदोष- कुशास्त्रों के संस्कार से हिंसादि अधार्मिक कार्यों को धर्म मानना। 4. आमरणान्त दोष- मरणकाल तक भी हिंसादि करने का अनुताप न होना।
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{1108} गगनवनधरित्रीचारिणां देहभाजाम्, दलनदहनबन्धच्छेदघातेषु यत्नम्। दृतिनखकरनेत्रोत्पाटने कौतुकं यत् , तदिह गदितमुच्चैश्चेतसां रौद्रमित्थम् ॥
(ज्ञा. 24/8/1230) आकाश, जल और पृथिवी के ऊपर संचार करने वाले प्राणियों के पीसने, जलाने, बांधने, काटने और प्राणघात करने में जो प्रयत्न होता है तथा उनका चमड़ा, नख, हाथ और ॐ नेत्रों के उखाड़ने में जो कुतूहल होता है, उसे यहां मनस्वी जनों ने 'रौद्रध्यान' कहा है। म
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11101 सिक्थमत्स्यः किलैकोऽसौ स्वयम्भूरमणाम्बुधौ। महामत्स्यसमान्दोषानवाप. स्मृतिदोषतः॥ पुरा किलारविन्दाख्यः प्रख्यातः खचराधिपः। रुधिरस्नानरौद्राभिसंधिः वाधी विवेश सः॥
_(आ. पु. 21/47-48). ___ स्वयंभूरमण समुद्र में जो तन्दुल नाम का छोटा मत्स्य रहता है, वह केवल स्मृति/ध्यान सम्बन्धी दोष से ही महामत्स्य के समान दोषों को प्राप्त होता है। इसी प्रकार पूर्वकाल 卐 में अरविन्द नाम का प्रसिद्ध विद्याधर केवल रुधिर में स्नान करने रूप रौद्र ध्यान से ही नरक
卐 गया था।
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अहिंसा-विश्वकोश/4491