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[1098) न सयं गिहाई कुजा व अन्नेहिं कारए। गिहकम्मसमारम्भे भूयाणं दीसई वहो॥
(उत्त. 35/8) भिक्षु न स्वयं घर बनाए, और न दूसरों से बनवाए। चूंकि गृह-कर्म के समारंभ में प्राणियों का वध देखा जाता है।
(1099)
तसाणं थावराणं च सुहुमाण बायराण य। तम्हा गिहसमारम्भं संजओ परिवजए॥ ..
(उत्त. 35/9) चूंकि गृह-कर्म के सभारंभ में त्रस व स्थावर तथा सूक्ष्म व बादर (स्थूल)-जीवों का वध होता है, अतः संयत भिक्षु गृह-कर्म के समारंभ का परित्याग करे।
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(1100) न बाहिरं परिभवे अत्ताणं न समुक्कसे। सुयलाभे न मज्जेज्जा, जच्चा तवसि बुद्धिए॥ (30)
(दशवै. 8/418) साधु अपने से भिन्न किसी जीव का तिरस्कार न करे। अपना उत्कर्ष भी प्रकट न 卐 करे। श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि से (उत्कृष्ट होने पर भी) मद भी न करे। (30)
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ESSETTE
अहिंसा-विश्वकोश/4451