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________________ SEENEFFNEFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFIYEP 卐卐ya अहिंसा-साधना और ध्यान-योग 明明明明明明明 [जो ध्यान शुभ परिणामों से किया जाता है उसे प्रशस्त ध्यान कहते हैं और जो अशुभ परिणामों से किया॥ ॐ जाता है उसे अप्रशस्त ध्यान कहते हैं। प्रशस्त ध्यान के धर्म्य और शुक्ल ऐसे दो भेद हैं तथा अप्रशस्त ध्यान के आर्त卐 ॐ और रौद्र ऐसे दो भेद हैं। इस प्रकार जैन शास्त्रों में वह ध्यान आर्त, रौद्र, धर्म्य और शुक्ल के भेद से चार प्रकार का卐 ॐ वर्णित किया गया है। इन चारों ध्यानों में से पहले के दो अर्थात् आर्त और रौद्र ध्यान छोड़ने के योग्य हैं क्योंकि वे " खोटे ध्यान हैं, हिंसात्मक हैं और संसार को बढ़ाने वाले हैं किन्तु आगे के दो अर्थात् धर्म्य और शुक्ल ध्यान साधक के लिए ग्रहण करने योग्य हैं। क्योंकि वे साधक को अहिंसा की पूर्णता की ओर ले जाने वाले होते हैं। FO हिंसात्मक अप्रशस्त ध्यानः योगी/साधु के लिए हेय 听听听听听听听听听听听听听听听 {1101) रोद्दे झाणे चउन्विधे पन्नत्ते, तं जहा-- हिंसाणुबंधी, मोसाबंधी, तेयाणुबंधी, सारक्खणाणुबंधी। (व्या. प्र. 25/7/240) रौद्रध्यान चार प्रकार का कहा गया है। यथा- (1) हिंसानुबन्धी, (2) मृषानुबन्धी, 4 (3) स्तेयानुबन्धी, और (4) संरक्षणाऽनुबन्धी। [रौद्रध्यानः स्वरूप और प्रकार-हिंसा, असत्य चोरी तथा धन आदि की रक्षा में अहर्निश चित्त को जोड़ना 'रौद्रध्यान' है। रौद्रध्यान में हिंसा आदि के अति क्रूर परिणाम होते हैं। अथवा हिंसा में प्रवृत्त आत्मा द्वारा दूसरों 卐 को रुलाने या पीड़ित करने वाले व्यापार का चिन्तन करना भी रौद्रध्यान है। अथवा छेदन, भेदन, काटना, मारना, ॐ पीटना, वध करना, प्रहार करना, दमन करना इत्यादि क्रूर कार्यों में जो राग रखता है, जिसमें अनुकम्पाभाव नहीं है, 卐 उस व्यक्ति का ध्यान भी रौद्रध्यान कहलाता है। रौद्रध्यान के हिंसानुबन्धी आदि चार भेद हैं। 卐 हिंसानुबन्धी- प्राणियों पर चाबुक आदि से प्रहार करना, नाक-कान आदि को कोल से बींध देना, रस्सी, फूलोहे की श्रृंखला (सांकल) आदि से बांधना, आग में झोंक देना, शस्त्रादि से प्राणवध करना, अंगभंग कर देना 卐 तथा इनके जैसे क्रूर कर्म करते हुए अथवा न करते हुए भी क्रोधवश होकर निर्दयतापूर्वक ऐसे हिंसाजनक कुकृत्यों का卐 ॐ सतत चिन्तन करना तथा हिंसाकारी योजनाएं मन में बनाते रहना हिंसानुबन्धी रौद्रध्यान है। ॐ मृषानुबन्धी- दूसरों को छलने, ठगने, धोखा एवं चकमा देने तथा छिप कर पापाचरण करने, झूठा प्रचार 卐 करने, झूठी अफवाहें फैलाने, मिथ्या-दोषारोपण करने की योजना बनाते रहना, ऐसे पापाचरण के अनिष्टसूचक वचन, 卐 असभ्य वचन, असत् अर्थ के प्रकाशन, सत्य अर्थ के अपलाप, एक के बदले दूसरे पदार्थ आदि के कथनरूप असत्य के वचन बोलने तथा प्राणियों का उपघात करने वाले वचन कहने का निरन्तर चिन्तन करना मृषानुबन्धी रौद्रध्यान है।' EFEREFERENEURSHEESHTHESEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/446 弱弱弱弱弱~5%%%%%%%%%%%~明頭明
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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