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________________ $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 编 1卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐编编 या प्रवृत्ति) नहीं करता, न वह दूसरों से समारम्भ कराता है, और न ही समारम्भ करते हुए व्यक्ति का अनुमोदन करता है। इस कारण से वह साधु महान् कर्मों के आदान (बंधन) से मुक्त हो जाता है, शुद्ध संयम में उद्यत रहता है तथा पापकर्मों से निवृत्त हो जाता है। (1085) धम्मस्स य पारगे मुणी आरंभस्स य अंतए ठिए । धर्म का पारगामी मुनि आरंभ (हिंसा) के अन्त (दूर) में स्थित होता है। (1086) सदा सच्चेण संपण्णे मेत्तिं भूतेसु कप्प ॥ सदा सत्य से संपन्न हो जीवों के साथ मैत्री करे। (सू.कृ. 1/2/2/31) (सू.कृ. 1/15/3) (1087) तिविहेण विपाण मा हणे आयहिएं अणियाण संवुडे । एवं सिद्धा अणंतगा संपइ जे य अणागयावरे ॥ (1088) तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं । अहिंसा निउणा दिट्ठा, सव्वभूएसु संजमो ॥ (8) (सू.कृ. 1/2/3/75) साधक मन, वचन और काया, कृत, कारित और अनुमति- इन तीनों प्रकारों से किसी भी प्राणी की हिंसा न करे, आत्मा में लीन रहे, सुखों की अभिलाषा न करे, इन्द्रिय और मन का संयम करे। इन गुणों का अनुसरण कर अनन्त मनुष्य (अतीत में) सिद्ध हुए ! है, कुछ (वर्तमान में) हो रहे हैं और (भविष्य में ) होंगे। (दशवै. 6/271) 5卐卐卐卐卐卐卐 (तीर्थंकर) महावीर ने उन (अठारह आचारस्थानों) में प्रथम स्थान अहिंसा का कहा है, (क्योंकि) अहिंसा को (उन्होंने ) सूक्ष्मरूप से (अथवा अनेक प्रकार से सुखावहा) देखा है । सर्व जीवों के प्रति संयम रखना अहिंसा है। (9) 9 अहिंसा - विश्वकोश | 441] $$$$$$$$$$$$$$$ $$$$$$$$$$$
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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