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________________ , 卐EFFEREST O अहिंसा-साधना के सम्बलः विशिष्ट शास्त्रीय उपदेश (10811 पभू दोसे णिराकिच्चा ण विरुज्झेज केणइ। मणसा वयसा चेव कायसा चेव अंतसो॥ (सू.कृ. 1/11/12) जितेन्द्रिय पुरुष दोषों (क्रोध आदि) का निराकरण कर मनसा, वाचा, कर्मणा आजीवन किसी के साथ विरोध न करे। (1082) आहत्तहीयं समुपेहमाणे सव्वेहिं पाणेहिं णिहाय दंडं। णो जीवियं णो मरणाहिकंखे परिव्वएज्जा वलया विमुक्के । (सू.कृ. 1/13/23) याथातथ्य (हिंसा के कुफल आदि) को भली भांति-देखता हुआ (भिक्षु) सब प्राणियों की हिंसा का परित्याग करे। जो जीवन और मरण की अभिलाषा नहीं करता हुआ परिव्रजन करता है वह वलय (संसार-चक्र) से मुक्त हो जाता है। 25叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩叩明 110821 (1083) भूतेसु ण विरुज्झेज्जा एस धम्मे वुसीमओ। वुसीमं जगं परिण्णाय अस्सि जीवियभावणा॥ (सू.कृ. 1/15/4) ॥ जीवों के साथ विरोध न करे- यह संयमी का धर्म है। संयमी पुरुष परिज्ञा (विवेक) म से जगत् को जान कर इस धर्म में जीवित-भावना करें। (1084) से भिक्खू जे इमे तस थावरा पाणा भवंति ते णो सयं समारभति, णो वऽण्णेहिं समारभावेति, अण्णे सभारभंते वि न समणुजाणइ, इति से महता आदाणातो उवसंते ॐ उवहिते पडिविरते। (सू.कृ. 2/1/सू. 684) जो ये त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनका वह भिक्षु स्वयं समारम्भ (हिंसाजनक व्यापार [जैन संस्कृति खण्ड/440
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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