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________________ 缟 (1089) एयं खुणाणि सारं जं ण हिंसइ कंचणं । अहिंसा समयं चैव एयावंतं वियाणिया ॥ ज्ञानी होने का यही सार है कि वह किसी की हिंसा नहीं करता । समता ही अहिंसा है, इतना ही उसे जानना है । (सू.कृ. 1/1/4/85;1/11/10) (1090) इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो । तं इच्छ परस्स वि, एत्तियगं जिणसासणयं ॥ जो अपने लिए चाहते हो उसे दूसरों के लिए भी चाहना चाहिए, जो अपने लिए नहीं चाहते हो उसे दूसरों के लिए भी नहीं चाहना चाहिए- बस इतना मात्र जिन - शासन है, तीर्थंकरों का उपदेश है। (1091) आरंभे पाणिवहो पाणिव होदि अप्पणो हु वहो । अप्पा ण हु हंतव्वो पाणिवहो तेण मोत्तव्वो ॥ (बृह. भा. 4584) आरम्भ (हिंसा आदि) में प्राणियों का घात है और प्राणियों के घात में निश्चय से (1092) जीववहो अप्पवहो, जीवदया अप्पणो दया हो । आत्मा का घात होता है। आत्मा का घात नहीं करना चाहिए, इसलिए प्राणियों की हिंसा छोड़ देनी चाहिए। अपने ऊपर ही दया है। (मूला. 10/923) 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 [ जैन संस्कृति खण्ड /442 किसी भी अन्य प्राणी की हत्या वस्तुत: अपनी ही हत्या है, और अन्य जीव की दया ( भक्त. 93 ) $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 卐
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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