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(1062) से बेमि-संतिमे तसा पाणा, तं जहा-अंडया पोतया जराउया रसया संसेयया ' सम्मुच्छिमा उब्भिया उववातिया। एस संसारे त्ति पंवुच्चति । मंदस्स अवियाणओ।
णिज्झाइत्ता पडिलेहित्ता पत्तेयं परिणिव्वाणं । सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं भूताणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं अस्सातं अपरिणिव्वाणं महन्मयं दुक्खं ति बेमि।
तसंति पाणा पदिसो दिसासु य। तत्थ तत्थ पुढो पास आतुरा परितार्वति।
(आचा. 1/1/6/सू. 49) मैं कहता हूं
ये सब त्रस प्राणी हैं, जैसे-अंडज, पोतज, जरायुज, रसज, संस्वेदज, सम्मूछिम, '' 卐 उद्भिज और औपपातिक। यह (त्रस जीवों का समन्वित क्षेत्र) संसार कहा जाता है। मंद
तथा अज्ञानी जीव को यह संसार (प्राप्त) होता है। * मैं चिन्तन कर, सम्यक् प्रकार देख कर कहता हूं- प्रत्येक प्राणी परिनिर्वाण (शान्ति 卐 और सुख) चाहता है।
सब प्राणियों, सब भूतों, सब जीवों और सब सत्त्वों को असाता (वेदना) और अपरिनिर्वाण (अशान्ति)-ये महाभयंकर और दुःखदायी हैं। मैं ऐसा कहता हूं।
ये प्राणी दिशा और विदिशाओं में, सब ओर से भयभीत/त्रस्त रहते हैं।
तू देख, विषय-सुखाभिलाषी आतुर मनुष्य स्थान-स्थान पर इन जीवों को परिताप ॥ देते रहते हैं।
{1063) तणरुक्खं न छिंदेजा फलं मूलं व कस्सइ । आमगं विविहं बीयं मणसा वि न पत्थए । (10) गहणेसु न चिट्ठज्जा बीएसु हरिएसु वा। उदगम्मि तहा निच्चं उत्तिंग-पणगेसु वा ॥ (11)
(दशवै. 8/398-399) (अहिंसामहाव्रती मुनि) तृण (हरी घास आदि), वृक्ष, (किसी भी वृक्ष के) फल, ॐ तथा (किसी भी वनस्पति के) मूल का छेदन न करे, (यही नहीं,) विविध प्रकार के सचित्त
बीजों (तथा कच्ची अशस्त्रपरिणत वनस्पतियों के सेवन) की मन से भी इच्छा न करे। (10) म (मुनि) वनकुंजों में, बीजों पर, हरित (दूब आदि हरी वनस्पति) पर, तथा उदक, जउत्तिंग और पनक (काई) पर खड़ा न रहे। (11) REEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश।4331
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