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{1064) लजमाणा पुढो पास। 'अणगारा मो' ति एगे पवयमाणा, जमिणं विरूवरूवेहिं ॥ ॐ सत्थेहिं तसकायसमारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अण्णे अणेगरूवे पाणे विहिंसति।
___ (आचा. 1/1/6 सू. 50) ___ तू देख! संयमी साधक जीव-हिंसा में लज्जा/ग्लानि/संकोच का अनुभव करते हैं। और उनको भी देख, जो 'हम गृहत्यागी है' यह कहते हुए भी अनेक प्रकार के उपकरणों से म
सकाय का समारंभ करते हैं। त्रसकाय की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्राणों की भी ॐ हिंसा करते हैं।
{1065) पुढविदगागणिपवणे य बीयपत्तेयणंतकाए य। विगतिगचदुपंचिंदियसत्तारंभे अणेयविहे ॥
(भग. आ. 610) . 'पुढविदगागणिपवणे य' पृथिव्यामुदके ऽग्रौ पवने च । 'बीजपत्तेयणंतकाए य' बीजे प्रत्येककाये च ॥ वनस्पतौ। 'विगतिगचदुपंचेंदियसत्तारं भे' द्वित्रिचतुःपञ्चेन्द्रियसत्त्वविषये चारम्भे। अणेगविधे' अनेकप्रकारे। 卐 पृथिव्या मृत्तिकोपलशर्करासिकतालवणाव्रजमित्यादिकायाः खननं, विलेखन, दहनं, कुट्टनं, भञ्जनम् ॥ 卐 इत्यादिकयाऽऽरम्भः। उदककरकावश्यायतुषारादीनां अन्भेदानां पानं, सानमवगाहनं, तरणं हस्तेन, पादेन,卐 जगात्रेण वा मर्दनम्- इत्यादिकम् । अग्निज्वाला, प्रदीप: उल्मुकम् इत्यादिकस्य तेजसः उपर्युदकस्य, पाषाणस्य, 卐मत्तिकायाः सिकताया वा प्रक्षेपणं, पाषाणकाष्ठादिभिर्ह ननम् इत्यादिकम् । झंझामण्डलिकादौ वायो 卐वातिव्यंजनेन, तालवृन्तेन, शूर्पण, चेलादिना वा समीरणोत्थापनादिक: वाते वाभिगमनम्। बीजानां 卐 प्रत्येककायानाम् अनन्तकायानां च वृक्षवल्लीगुल्मलतातॄणपुष्पफलादीनां दहनं, छेदनं मर्दनं, भञ्जनं, स्पर्शनं, 卐 भक्षणमित्यादिकम् । द्वीन्द्रियादीनां मारणं, छेदनं, ताडनं,बन्धनं, रोधनमित्यादिकम्॥
(भग. आ. विजयो. 610) (गाथा का अर्थ-) पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, प्रत्येककायिक वनस्पति, साधारणकायिक वनस्पति, दो इन्द्रिय, ते-इन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और
पञ्चेन्द्रिय जीवसम्बन्धी अनेक प्रकार के आरम्भ की आलोचना मुनि करता है। ॐ [टीका- मिट्टी, पत्थर, शर्करा, रेत, नमक इत्यादि का खोदना, हल से जोतना, जलाना, कूटना, तोड़ना आदि) 卐 पृथिवी-सम्बन्धी आरम्भ हैं। जल, बर्फ, ओस, तुषार आदि विविध प्रकार के पानी को पीना, स्नान, अवगाहन, तैरना, 卐
हाथ पैर या शरीर से मर्दन करना आदि जल-सम्बन्धी आरम्भ हैं। आग, ज्वाला, दीपक, उल्मुक इत्यादि आग के ऊपर)
पानी, पत्थर, मिट्टी अथवा रेत फेंकना या पत्थर या लकड़ी आदि से आम को पीटना आग-सम्बन्धी आरम्भ हैं। झंझा卐 卐 और माण्डलिका आदि वायु को ताड़ के पत्र से, सूप से, लकड़ी आदि से रोकना, या पंखे आदि से हवा करना, वायु
के सन्मुख गमन करना- ये सब वायुकायसम्बन्धी आरम्भ हैं। बीज, प्रत्येककाय और अनन्तकाय वृक्ष, लता, बेल, झाड़ी, तृण, पुष्पफल आदि को जलाना, छेदना, मसलना, तोड़ना, छूना, खाना आदि वनस्पतिकाय सम्बन्धी आरम्भ हैं। दो इन्द्रिय आदि जीवों को मारना, छेदना, पीटना, बांधना, रोकना आदि बे-इन्द्रिय आदि सम्बन्धी आरम्भ हैं।
EERSEEEEEEEEEEEEEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/434
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