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________________ %%%%% FFERESTHETRIFFERESSESSIFE साधु या साध्वी एक ग्राम से दूसरे ग्राम विहार करते हुए अपने सामने की युग-मात्र / (गाड़ी के जुए के बराबर चार हाथ प्रमाण) भूमि को देखते हुए चले, और मार्ग में त्रस जीवों को देखें तो पैर के अग्रभाग को उठा कर चले। यदि दोनों ओर जीव हों तो पैरों को सिकोड़ 卐 कर चले अथवा पैरों को तिरछे-टेढे रख कर चले ( यह विधि अन्य मार्ग के अभाव में बताई ॥ 卐 गई है)। यदि दूसरा कोई साफ मार्ग हो, तो उसी मार्ग से यतनापूर्वक जाए, किन्तु जीव जन्तुओं से युक्त सरल (सीधे) मार्ग से न जाए। (निष्कर्ष यह है कि) उसी (जीव-जन्तु से रहित मार्ग से यतनापूर्वक ग्रामानुग्राम विचरण करना चाहिए। साधु या साध्वी ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए यह जाने कि मार्ग में बहुत से त्रस ॐ प्राणी हैं, बीज बिखरे हैं, हरियाली है, सचित्त पानी है या सचित्त मिट्टी है, जिसकी योनि विध्वस्त नहीं हुई है, ऐसी स्थिति में दूसरा निर्दोष मार्ग हो तो साधु या साध्वी उसी मार्ग से * यतनापूर्वक जाएं, किन्तु उस (जीवजन्तु आदि से युक्त) सरल (सीधे) मार्ग से न जाए। म (निष्कर्ष यह है कि) उसी (जीवजन्तु आदि से रहित) मार्ग से साधु-साध्वी को ग्रामानुग्राम 卐 विचरण करना चाहिए। {943) एगया गुणसमितस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेदणवेजावडियं । जं आउट्टिकयं कम्मं तं परिण्णाय विवेगमेति । एवं से 9 अप्पमादेण विवेगं किट्टति वेदवी। (आचा. 1/5/4 सू. 163)卐 किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित (गुणयुक्त) अप्रमादी (सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर कुछ (सम्पातिम आदि) प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, (अथवा विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त-षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनि के कायस्पर्श से न चाहते हुए भी 卐 कोई प्राणी परितप्त हो जाए या मर जाए) तो उसके इस जन्म में वेदन करने (भोगने) योग्य है कर्म का बन्ध हो जाता है। (किन्तु उस षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के द्वारा) आकुट्टि से -(आगमोक्त विधिरहित-) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर है 卐 (-परिज्ञात कर) दस प्रकार के प्रायश्चित्त में से किसी प्रायश्चित्त से करे। इस प्रकार उस (प्रमादवश किए हुए साम्परायिक कर्मबन्ध) का विलय (क्षय) अप्रमाद (से यथोचित्त प्रायश्चित्त) से होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं। N EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा-विश्वकोश/3771
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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