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________________ הכתבהפרשתשתפתעתעתעתכתבתכתבתקיפהפהפהפהפהפפרכתנתבכתבהבהבהבהבתבב (935) जयं विहारी चित्तणिवाती पंथणिज्झाई पलिबाहिरे पासिय पाणे गच्छेज्जा। (आचा. 1/5/4 सू. 162) मुनि (प्रत्येक चर्या में) यतनापूर्वक विहार करे, चित्त को गति में एकाग्र कर, मार्ग 卐 का सतत अवलोकन करते हुए (दृष्टि टिका कर) चले। जीव-जन्तु को देख कर पैरों को ॐ आगे बढ़ने से रोक ले और मार्ग में आने वाले प्राणियों को देखकर गमन करे। {936) अपयत्ता वा चरिया सयणासणठाणचंकमादीसु। समणस्स सव्वकालं हिंसा सा संततत्ति मदा॥ (प्रव. 3/16 ॥ सोना, बैठना, खड़ा होना तथा विहार करना आदि क्रियाओं में साधु की जो यतना-रहित स्वच्छन्द प्रवृत्ति है, वह निरन्तर अखण्ड प्रवाह से चलने वाली हिंसा है- ऐसा माना गया है। {937} थणंति लुप्पंति तसंति कम्मी पुढो जगा परिसंखाय भिक्खू। तम्हा विऊ विरए आयगुत्ते दटुं तसे य प्पडिसाहरेजा॥ ___ (सू.कृ. 1/7/20) अपने कर्मों से बंधे हुए नाना प्रकार के त्रस प्राणी (मनुष्य के पैर का स्पर्श होने पर) क आवाज करते हैं, भयभीत और त्रस्त हो जते हैं, सिकुड़ और फैल जाते हैं-यह जानकर * विद्वान् विरत और आत्मगुप्त भिक्षु त्रस जीवों को (सामने आते हुए) देखकर (अपने पैरों का) संयम करे। 如明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明 (9381 तम्हा तेण न गच्छेज्जा, संजए सुसमाहिए। सइ अन्नेण मग्गेण जयमेव परक्कमे ॥ (6) (दशवै. 5/88) 卐 __इसलिए सुसमाहित (सम्यक् समाधिमान्) संयमी साधु अन्य मार्ग के होते हुए उस जमार्ग से न जाए। यदि दूसरा मार्ग न हो तो (निरुपायता की स्थिति में) यतनापूर्वक (उस ॐ मार्ग से) जाए। (6) बागगगगगगना LEOCLCLCLCLCLCLCLCLCLCLAMEL EWIELEUCLEUELELELELCLC अहिंसा-विश्वकोशा 3751
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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