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________________ :תכתבתם-בהמתפתבחנתפסתבתסחפיפתפתפתתפתפתפתמתמחפpפיפיפיפיפיפיפינדוס .. {563) जो धम्मत्थो जीवो सो रिउ-वग्गे वि कुणइ खम-भावं। ता पर-दव्वं वजइ जणणि-समं गणइ पर-दारं ॥ (स्वा. कार्ति. 12/429) धर्मात्मा जीव अपने मित्र वगैरह स्वजनों की तो बात ही क्या, अपने शत्रुओं पर भी है क्रोध नहीं करता। वह पराये रत्न, सुवर्ण, मणि, मुक्ता व धन-धान्य-वस्त्र वगैरह को पाने का प्रयत्न भी नहीं करता। वह दूसरों की स्त्रियों (पर कुदृष्टि नहीं डालता और उन) को माता के समान देखता-समझता है। ~~~~~~'~~~~~~~~~~~~~~~~~~叫~~~~~~~~ {564) खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मज्झं न केणइ॥ (आवश्यक सूत्र/4/क्षमापन सूत्र) (प्रतिक्रमण-विधि में साधु द्वारा अभिव्यक्त भावना-) मैं समस्त जीवों से क्षमा । मांगता हूं और सब मुझे क्षमा करें। सब जीवों के प्रति मेरा मैत्री-भाव है, मेरा किसी भी जीव 卐 के साथ वैर-विरोध नहीं है। O अहिंसा की सहचारिणीः क्षमा, दया, अनुकम्पा, करुणा आदि {565) धर्मस्य दया मूलं न चाक्षमावान् दयां समादत्ते। तस्माद्यः क्षान्तिपरः स साधयत्युत्तमं धर्मम्॥ (प्रशम. 168) धर्म का मूल दया है। और दया का पालन क्षमावान ही कर सकता है। अतः जो मारूपी धर्म में तत्पर है, वही उत्तम धर्म की साधना कर सकता है। 卐卐! अहिंसा-विश्वकोश/2471
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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