SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 268
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 2 $$$$$, 卐 筑 6卐卐编编编编卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐事。 (540) हिंसं अलियं चोज्जं आचरदि जणस्स रोसदोसेण । तो ते सव्वे हिंसालियादि दोसा भवे तस्स ॥ क्रोध के कारण मनुष्य लोगों की हिंसा करता है, उनके सम्बन्ध में झूठ बोलता है, चोरी करता है । अत: उस (क्रोधी) में हिंसा, झूठ आदि सब दोष होते हैं । (541) कुद्धो वि अप्पसत्थं मरणे पत्थेइ परवधादीयं । जह उग्गसेणघादे कदं णिदाणं वसिद्वेण ॥ (भग. आ. 1212) क्रोध कषाय के वश होकर कोई मरते समय भी दूसरे का वध करने की प्रार्थना करता है। जैसे वशिष्ठ ऋषि ने उग्रसेन का घात करने का निदान किया था । [विशेषार्थ- वशिष्ठ तापस ने उग्रसेन को मारने का निदान किया था। इस निदान के फल से वह मर कर उग्रसेन का पुत्र कंस हुआ। उसने पिता को जेल में डाल कर राज्यपद प्राप्त किया। बाद में कृष्ण के द्वारा स्वयं भी मारा गया ।] (भग. आ. 1367) O अहिंसात्मक प्रथम भाव या क्षमाः क्रोध की एकमात्र चिकित्सा (542) पयईइ व कम्माणं वियाणिउं वा विवागमसुहं ति । अवरद्धे विन कुप्पइ उवसमओ सव्वकालं पि ॥ सम्यक्त्व से विभूषित जीव उपशम (प्रशम) के आश्रय से स्वभावतः अथवा कर्मों (543) स एव प्रशमः श्लाध्यः स च श्रेयोनिबन्धनम् । अदयैर्हन्तुकामैर्यो न पुंसां कश्मलीकृतः ॥ के अशुभ विपाक को जान कर सदा अपराधी प्राणी के ऊपर भी क्रोध नहीं किया करता है। प्राणघात के इच्छुक दुष्टजनों के द्वारा मलिन नहीं किया जाता है। ( श्रा.प्र. 55 ) मनुष्यों का वही प्रशमभाव प्रशंसनीय है और वही मोक्ष का भी कारण है जो कि 事 事事 [ जैन संस्कृति खण्ड /240 (ज्ञा. 18/73/964) [ अभिप्राय यह है कि हिंसा - अनुरागी दुष्ट व्यक्तियों में यह प्रशम भाव संभव नहीं है ।] 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐 $$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$$ 卐
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy