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Oजीवघातक व आत्मघातकः विषय भोग-आसक्त प्राणी
[इंद्रियों की विषयों के प्रति भोगों में निरन्तर प्रवृत्ति 'असंयम', है, उसे प्रश्नव्याकरण-सूत्र (1/1सू. 3) में ॐ हिंसा कहा है। इसी के विपरीत, संयम व विरति-दोनों को वहां "अहिंसा' का पर्याय भी बताया गया है (द्र. 卐 प्रश्नव्याकरण सूत्र-2/1सू.107) । इन्द्रिय-विषयों के सेवन से सर्वविनाश व आत्म-विनाश की स्थिति ही परिणत होती 卐 है। इसी दृष्टि से विषय-आसक्ति के आत्मघाती स्वरूप को स्पष्ट करने के उद्देश्य से कुछ उपयोगी शास्त्रीय वचन यहां ॐ संकलित किए गए हैं:-]
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1497)
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रूवाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। चित्तेहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तट्ठगुरू किलिटे ॥
(उत्त. 32/27) मनोज्ञ रूप की आशा (इच्छा) का अनुगमन करने वाला व्यक्ति अनेकरूप चराचर " अर्थात् त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। अपने प्रयोजन को ही अधिक महत्त्व देने म वाला वह क्लिष्ट (राग से बाधित) अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें परिपात देता है, पीड़ा ॥
पहुंचाता है।
1498)
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फासाणुगासाणुगए य जीवे चराचरे हिंसइ ऽणेगरूवे। चित्तेंहि ते परितावेइ बाले पीलेइ अत्तद्वगुरू किलिटे॥
(उत्त. 32/79) स्पर्श की आशा का अनुगामी व्यक्ति अनेक-रूप त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा : करता है। अपने प्रयोजन को ही मुख्य मानने वाला वह क्लिष्ट अज्ञानी विविध प्रकार से उन्हें 卐 परिताप देता है, पीड़ा पहुंचाता है।
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{499) पंचहिं ठाणेहिं जीवा विणिघायमावजंति, तं जहा- सद्देहिं, जाव (रूवेहिं, '' ॐ गंधेहिं, रसेहिं), फासेहिं।
(ठा. 5/1/11) पांच स्थानों (कारणों) से जीव विनिघात (विनाश) को प्राप्त होते हैं। जैसे-1. शब्दों से, 2. रूपों से, 3. गन्धों से, 4. रसों से, 5. स्पर्शों से, अर्थात् इनकी अति लोलुपता के कारण जीव विघात को प्राप्त होते हैं।
E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/216
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