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________________ R E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEMA 1385) अभिक्खणं कोही हवइ पबन्धं च पकुव्वई। मेत्तिजमाणो वमइ सुयं लभ्रूण मजई॥ अवि पावपरिक्खेवी अवि मित्तेसु कुप्पई। सुप्पियस्सावि मित्तस्स रहे भासइ पावगं॥ पइण्णवाई दुहिले थद्धे लुद्धे अणिग्गहे। असंविभागी अचियत्ते अविणीए त्ति वुच्चई॥ (उत्त. 11/7-9) (1) जो बार-बार क्रोध करता है, (2) जो क्रोध को लम्बे समय तक बनाये रखता म है, (3) जो मित्रता को ठुकराता है, (4) जो श्रुत प्राप्त कर अहंकार करता है, (5) जो म स्खलना होने पर दूसरों का तिरस्कार करता है, (6) जो मित्रों पर क्रोध करता है, (7) जो है प्रिय मित्रों की भी एकान्त में बुराई करता है, (8) जो असंबद्ध प्रलाप करता है, (9) द्रोही ॥ है, (10) अभिमानी है, (11) रसलोलुप है, (12) अजितेन्द्रिय है, (13) असंविभागी है, है 卐 साथियों में बांटता नहीं है, और (14) अप्रीतिकर है। 听听听听听听听听听听听听 (386) से उठ्ठिएसु वा अणुट्ठिएसु वा सुस्सूसमाणेसु पवेदए संतिं विरतिं उवसमं ॐ णिव्वाणं सोयवियं अज्जवियं मद्दवियं लावियंअणतिवत्तियं । सव्वेसिं पाणाणं सव्वेसिं' भूताणं सव्वेसिं जीवाणं सव्वेसिं सत्ताणं, अणुवीइ भिक्खू धम्ममाइक्खेजा। (आचा. 1/6/5 सू. 196) ॐ वह मुनि सदज्ञान सुनने के इच्छुक व्यक्तियों के बीच, फिर वे चाहे (धर्माचरण के लिए) उत्थित (उद्यत) हों या अनुत्थित (अनुद्यत), शान्ति, विरति, उपशम, निर्वाण, शौच (निर्लोभता), आर्जव (सरलता), मार्दव (कोमलता), लाघव (अपरिग्रह) एवं अहिंसा है जी का प्रतिपादन करे। वह भिक्षु समस्त प्राणियों, सभी भूतों, सभी जीवों और समस्त सत्त्वों का + हित-चिन्तन करके (या उनकी वृत्ति-प्रवृत्ति के अनुरूप विचार करके) धर्म काम 卐 व्याख्यान करे। F FERESENSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN अहिंसा-विश्वकोश।1731
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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