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हिंसानृतपरादत्तग्रहाब्रह्मपरिग्रहात् निवृत्तानां प्रमत्तानामपि सौख्यं शमात्मकम्॥
(ह. पु. 3/89) हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह- इन पांच पापों से विरत 'प्रमत्त संयत' जीवों के शान्तिरूप सुख होता है।
{323) अहिंसाप्रत्यपि दृढं भजन्नो जायते रुजि। यस्त्वध्यहिंसासर्वस्वे स सर्वाः क्षिपते रुजः॥
(सा. ध. 8/82) थोड़ी-सी भी अहिंसा को दृढ़तापूर्वक पालन करने वाला उपसर्ग आदि की पीड़ा उपस्थित होने पर दुःख से अभिभूत नहीं होता, अपितु और भी तेज-युक्त हो जाता है। जो समस्त अहिंसा का स्वामी होता है, वह तो समस्त दुःखों से दूर रहता है।
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{324) आयुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कीर्तिमानरः। अहिंसावतमाहात्म्यादेकस्मादेव जायते॥
(उपासका. 26/362) अकेले एक अहिंसा व्रत के प्रताप से ही मनुष्य चिरजीवी, सौभाग्यशाली, ऐश्वर्यवान्, सुन्दर और यशस्वी होता है।
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हिंसादिभ्यो यथाशक्ति देशतो विरतात्मनाम्। संयतासंयतानां च महातृष्णाजयात् सुखम् ॥
(ह. पु. 3/90) ___हिंसा आदि पांच पापों से यथाशक्ति एकदेश (आंशिक रूप से) निवृत्त होने वाले 'संयतासंयत' जीवों के महातृष्णा पर विजय प्राप्त होने के कारण (आध्यात्मिक) सुख होता है। FEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN
अहिंसा-विश्वकोश।।51)