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FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE n a ॐ उपनिधिक, शुद्धैषणिक, संख्यादत्तिक, दृष्टलाभिक, अदृष्टलाभिक, पृष्ठलाभिक, आचाम्लक,
पुरिमार्धिक, एकाशनिक, निर्विकृतिक, भिन्नपिण्डपातिक, परिमितपिण्डपातिक, अन्ताहारी, म
प्रान्ताहारी, अरसाहारी, विरसाहारी, रूक्षाहारी, तुच्छाहारी, अन्तजीवी, प्रान्तजीवी, रूक्षजीवी, * तुच्छजीवी, उपशान्तजीवी, प्रशान्तजीवी, विविक्तजीवी तथा दूध, मधु और घृत का यावज्जीवन 卐
त्याग करने वालों ने, मद्य और मांस से रहित आहार करने वालों ने, कायोत्सर्ग करके एक स्थान पर स्थित रहने का अभिग्रह करने वालों ने, प्रतिमा- स्थायिकों ने, स्थानोत्कटिकों ने,
वीरासनिकों ने, नैषधिकों ने, दण्डायतिकों ने, लगण्डशायिकों ने, एकपार्श्वकों ने, आतापकों 卐ने, अपाव्रतों ने, अनिष्ठीवकों ने, अकंडूयकों ने, धूतकेश-श्मश्रु-लोम-नख अर्थात् सिर के 卐 ॐ बाल, दाढी, मूंछ और नखों का संस्कार करने का त्याग करने वालों ने, सम्पूर्ण शरीर के है
प्रक्षालन आदि संस्कार के त्यागियों ने, श्रुतधरों के द्वारा तत्त्वार्थ को अवगत करने वाली बुद्धि
के धारक महापुरुषों ने (अहिंसा भगवती का) सम्यक् प्रकार से आचरण किया है। (इनके 卐 अतिरिक्त) आशीविष सर्प के समान उग्र तेज से सम्पन्न महापुरुषों ने, वस्तुतत्त्व का निश्चय जा और पुरुषार्थ-दोनों में पूर्ण कार्य करने वाली बुद्धि से सम्पन्न प्रज्ञापुरुषों ने, नित्य स्वाध्याय की
और चित्तवृत्तिनिरोध रूप ध्यान करने वाले तथा धर्मध्यान में निरन्तर चिन्ता को लगाये रखने के वाले पुरुषों ने, पांच महाव्रत-स्वरूप चारित्र से युक्त तथा पांच समितियों से सम्पन्न, पापों का 卐 शमन करने वाले, षट् जीवनिकायरूप जगत् के वत्सल, निरन्तर अप्रमादी रह कर विचरण म करने वाले महात्माओं ने तथा अन्य विवेकविभूषित सत्पुरुषों ने अहिंसा भगवती की
आराधना की है।
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० अहिंसाः सुख-शान्ति एवं कल्याण-मंगल का द्वार
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{321) स सुखं सेवमानोऽपि जन्मान्तरसुखाश्रयः। यः परानुपघातेन सुखसेवापरायणः॥
(उपासका. 23/283) जो दूसरों का घात न करके सुख का सेवन करता है (अर्थात् जो अपने सुख के लिए दूसरे की हिंसा नहीं करता,) वह इस जन्म में भी सुख भोगता है और दूसरे जन्म में भी सुख भोगता है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/150