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(316} तच्चं चेतं तहा चेतं अस्सिं चेतं पवुच्चति । तं आइत्तु ण णिहे, ण णिक्खिवे,卐 जाणित्तु धम्मं जहा तहा। दिठेहिं णिव्वेयं गच्छेज्जा। णो लोगस्सेसणं चरे । जस्स णत्थि इमा णाती अण्णा तस्स कतो सिया। दिळं सुतं मयं विण्णायं जमेयं परिकहिजति। समेमाणा पलेमाणा पुणो पुणो जातिं पकप्ती। अहो य रातो य 卐 जतमाणे धीरे सया आगतपण्णाणे, पमत्ते बहिया पास, अप्पमत्ते सया परक्कमेजासि त्ति बेमि।
(आचा. 1/4/1 सू. 133) 卐 वह ( अर्हत्प्ररूपित अहिंसा धर्म) तत्त्व-सत्य है, तथ्य है, -(तथारूप ही है)। ॐ यह इस (अर्हत्प्रवचन) में सम्यक् प्रकार से प्रतिपादित है। साधक उस (अर्हत्-भाषित 卐
धर्म) को ग्रहण करके (उसके आचरण हेतु अपनी शक्तियों को) छिपाए नहीं, और न ही है उसे (आवेश में आकर) फेंके या छोड़े। धर्म का जैसा स्वरूप है, वैसा जान कर (आजीवन
उसका आचरण करे) । (इष्ट-अनिष्ट) रूपों (इन्द्रिय-विषयों) से विरक्ति प्राप्त करे। वह ॥ 卐 लोकैषणा में न भटके। जिस मुमुक्षु में (लोकैषणा) बुद्धि (ज्ञाति-संज्ञा) नहीं है, उससे
अन्य (सावद्यारम्भ-हिंसा) प्रवृत्ति कैसे होगी? अथवा जिसमें सम्यक्त्व ज्ञाति नहीं है या # अहिंसा-बुद्धि नहीं है, उसमें दूसरी विवेक-बुद्धि कैसे होगी? यह जो (अहिंसा धर्म) कहा 卐 जा रहा है, वह इष्ट, श्रुत (सुना हुआ), मत (माना हुआ) और विशेष रूप से ज्ञात है
(अनुभूत) है। हिंसा में (गृद्धिपूर्वक) रचे-पचे रहने वाले और उसी में लीन रहने वाले .
मनुष्य बार-बार जन्म लेते रहते हैं। (मोक्ष-मार्ग में) अहर्निश यत्न करने वाले, सतत 卐 प्रज्ञावान, धीर साधक! उन्हें देख जो प्रमत्त हैं,(धर्म से) बाहर हैं। इसलिए तू अप्रमत्त हो
कर सदा (अहिंसादि रूप धर्म में) पराक्रम कर। ऐसा मैं कहता हूं।
{317) तत्थिमं पढमं ठाणं, महावीरेण देसियं।
(दशवै. 6/271) (तीर्थंकर) महावीर ने उन (अठारह आचारस्थानों) में प्रथम स्थान अहिंसा का कहा है।
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F EN अहिंसा-विश्वकोश।147)