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अहिंसाः निरन्तर सेवनीय धर्म
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अनवरतमहिंसायां शिवसुखलक्ष्मीनिबन्धने धर्मे। सर्वेष्वपि च साधर्मिषु परमं वात्सल्यमालम्ब्यम्॥
__(पुरु. 2/10/29) मोक्षसुख रूप सम्पदा के कारणभूत अहिंसामय धर्म में और सभी साधर्मी जनों में निरन्तर उत्कृष्ट वात्सल्य/प्रीति को अंगीकार करना चाहिये।
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यत्किंचित्संसारे शरीरिणां दुःखशोकभयबीजम्। दौर्भाग्यादि समस्तं तद्धिंसासंभवं ज्ञेयम्॥
__ (ज्ञा. 8/56/529) ___ संसार में जीवों के जो कुछ दुःख, शोक व भय का बीज 'कर्म' है तथा जो ॐ दुर्भाग्यादिक भी हैं, वे समस्त एकमात्र हिंसा से उत्पन्न हुए हैं- ऐसा समझना चाहिए।
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एसा भगवई अहिंसा जा सा अपरिमिय-णाणदंसणधरेहिं सील-गुण-विणयतव संयम- णायगेहिं तित्थयरेहिं सव्वजगजीववच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरेहिं (जिणचंदेहिं) सुठुदिट्ठा, ओहिजिणेहिं विण्णाया, उज्जुमईहिं विदिट्ठा, विउलमईहिं विदिआ, पुव्वधरेहिं अहीया, वेउव्वीहिं पतिण्णा, आभिणिबोहियणाणीहिं सुयणाणीहिं मणपज्जवणाणीहिं केवलणाणीहिं आमोसहिपत्तेहिं खेलोसहिपत्तेहिं जल्लोसहिपत्तेहिं : विप्पोसहिपत्तोहिं सव्वोसहिपत्तेहिं बीयबुद्धीहिं पयाणुसारीहिं संभिण्णसोएहिं सुयधरेहि
मणबलिएहिं वयबलिएहिं कायबलिएहिं णाणबलिएहिं दंसणबलिएहिं चरित्तबलिएहिं ॐ खीरावसवेहिं महुआसवेहिं सप्पियासवेहिं अक्खीणमहाणसिएहिं चारणेहिं विजाहरेहिं । ॥
चउत्थभत्तिएहिं एवं जाव छम्मासभत्तिएहिं उक्खित्तचरएहिं णिक्खित्तचरएहिं . अंतचरएहिं पंतचरएहिं लूहचरएहिं समुयाणचरएहिं अण्णइलाएहिं मोणचरएहिं
संसट्ठकप्पिएहिं तज्जायसंसट्ठकप्पिएहिं उवणिएहिं सुद्धेसणिएहिं संखादत्तिएहिं 卐 दिट्ठलाभिएहिं पुट्ठलाभिएहिं आयंबिलिएहिं पुरिमड्डिएहिं एक्कासणिएहिं णिव्विइएहिं : भिण्णपिंडवाइएहिं परिमियपिंडवाइएहिं अंताहारेहिं पंताहारेहिं अरसाहारेहिं विरसाहारेहिं .
EFFFFFFFFFFFFF [जैन संस्कृति खण्ड/148
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