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तपोयमसमाधीनां ध्यानाध्ययनकर्मणाम् ।
तनोत्यविरतं पीडां हृदि हिंसा क्षणस्थिता ॥
हृदय में क्षणभर भी स्थान पाई हुई यह हिंसा तप, यम, समाधि और ध्यानाध्ययनादि कार्यों को निरंतर पीड़ा देती है अर्थात् उन्हें नष्ट कर देती है।
(227)
निःस्पृहत्त्वं महत्त्वं च नैराश्यं दुष्करं तपः । कायक्लेशश्च दानं च हिंसकानामपार्थकम् ॥
नष्ट हो जाता है।
जो हिंसक पुरुष है उनकी नि:स्पृहता, महत्ता, आशारहितता, दुष्कर तप करना, कायक्लेश और दान करना आदि समस्त धर्म-कार्य व्यर्थ हैं अर्थात् निष्फल हैं।
(228)
(ज्ञा. 8/14/486)
क्षमादिपरमोदारैर्यमैर्यो वर्द्धितश्चिरम् ।
हन्यते स क्षणादेव हिंसया धर्मपादपः ॥
(ज्ञा. 8/19/491)
(229)
निस्त्रिंश एव निस्त्रिशं यस्य चेतोऽस्ति जन्तुषु । तपः श्रुताद्यनुष्ठानं तस्य क्लेशाय केवलम् ॥
का करने में दीर्घ काल व्यतीत हो जाता है, वह धर्म - वृक्ष इसी हिंसारूप कुठार से क्षणमात्र में
(ज्ञा. 8 /13/485)
उत्तम क्षमादिक परम उदार संयमों के आधार पर जिस धर्म-रूप वृक्ष को समृद्ध
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[ जैन संस्कृति खण्ड /102
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(ज्ञा. 8 /43/415)
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जिस पुरुष का चित्त जीवों के लिये शस्त्र के समान निर्दय है, उसका तप करना
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और शास्त्र का पढ़ना आदि कार्य केवल कष्ट के लिये ही होता है । अर्थात् वह सब
निरर्थक होता है।
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