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हिंसा-प्रमुखताः कलियुग की विशेषता
{181} हिंसा मानस्ता च, क्रोधोऽसूयाऽक्षमाऽधृतिः॥ पुष्ये भवन्ति जन्तूनां लोभो मोहश्च सर्वशः। संक्षोभो जायतेऽत्यर्थं कलिमासाद्य वै युगम्॥
(म. पु. 144/36-37) हिंसा, अभिमान, ईर्ष्या, क्रोध, पर-दोष-दर्शन/उद्भावन, अक्षमा (असहिष्णुता), # अधैर्य, लोभ व मोह- ये कलियुग में प्राणियों में अधिकांशतः रहते हैं। कलियुग में प्राणियों
में अत्यधिक क्षोभ भी अवश्य रहता है।
{1821 यदा सदाऽनृतं तन्द्रा निद्रा हिंसादिसाधनम्। शोकमोहौ भयं दैन्यं स कलिस्तमसि स्मृतः॥
(ग.पु. 1/215/27) जहां असत्य, तन्द्रा (आलस्य), निद्रा शोक, मोह, भय, दीनता एवं हिंसा आदि ॐ (पापों) के साधन सर्वदा दृष्टिगोचर हों, वहां तमोमय 'कलियुग' की उपस्थिति है- ऐसा
माना गया है।
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{183} हिंसा स्तेयानृतं माया दम्भश्चैव तपस्विनाम्। एते स्वभावाः पुष्यस्य साधयन्ति च ताः प्रजाः॥
(म. पु. 144/30) हिंसा, स्तेय (चौर्य) ,असत्य, माया, तपस्वियों में दम्भ-ये 'कलि' के स्वभाव में + अन्तर्भूत हैं, कलियुग में प्रजा भी इन्हीं का समर्थन करती हैं।
___{184} विश्वस्तघातिनः क्रूरा दयाधर्मविवर्जिताः। भविष्यन्ति नरा विप्र कलौ चाधर्मबान्धवाः॥
(ना. पु. 1/41/63) कलियुग में विश्वासघाती, क्रूर, दया-धर्म से शून्य तथा अधर्म के साथी/सहयोगी होंगें। % %% % %%% %%%%%% % %%%%%% %%% % वैिदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/60
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