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________________ %%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%% %%%%%%%% {127} पापेन कर्मणा देवि वध्यो हिंसारतिर्नरः। अप्रियः सर्वभूतानां हीनायुरुपजायते॥ ___ (म.भा. 13/144/52; 13/144/55; ब्रह्म 116/53 में आंशिक परिवर्तन के साथ ) देवि! हिंसाप्रेमी मनुष्य अपने पापकर्म के कारण दूसरों का वध्य, सब प्राणियों का अप्रिय तथा अल्पायु होता है। {128} यस्तु रौद्रसमाचारः सर्वसत्त्वभयंकरः। हस्ताभ्यां यदि वा पद्भ्यां रज्वा दण्डेन वा पुनः॥ लोष्टैः स्तम्भैरायुधैर्वा जन्तून् बाधति शोभने। हिंसार्थं निकृतिप्रज्ञः प्रोद्वेजयति चैव ह॥ उपक्रामति जन्तूंश्च उद्वेगजननः सदा। एवं शीलसमाचारो निरयं प्रतिपद्यते॥ स वै मनुष्यतां गच्छेद् यदि कालस्य पर्ययात्। बह्वाबाधपरिक्लिष्टे जायते सोऽधमे कुले॥ लोकद्वेष्योऽधमः पुंसां स्वयं कर्मफलैः कृतैः। एष देवि मनुष्येषु बोद्धव्यो ज्ञातिबन्धुषु॥ (म.भा. 13/145/32-36 ; ब्रह्म. 117/31-35 में आंशिक परिवर्तन के साथ) जिस मनुष्य का आचरण क्रूरता से भरा हुआ है, जिससे समस्त जीव भयभीत होते के हैं, जो हाथ, पैर, रस्सी, डंडे और ढेले से मारकर ,खम्भों में बांध कर तथा घातक शस्त्रों का प्रहार करके जीव-जन्तुओं को सताता रहता है, छल-कपट में प्रवीण होकर हिंसा के उद्देश्य से उन जीवों में उद्वेग पैदा करता है तथा उद्वेगजनक होकर सदा उन जन्तुओं पर आक्रमण म करता है, ऐसे स्वभाव और आचरण वाले मनुष्य को नरक में गिरना ही पड़ता है। यदि वह * काल-चक्र के फेरे से फिर मनुष्ययोनि में आता भी है तो अनेक प्रकार की विघ्न-बाधाओं जा से कष्ट-पूर्ण जीवन बिताने वाले अधम कुल में उत्पन्न होता है। ऐसा मनुष्य अपने ही किये हुए कर्मों के फल के अनुरूप ही मनुष्यों में तथा जाति-बन्धुओं में नीच समझा जाता है और सब लोग उससे द्वेष रखते हैं (अर्थात् कोई भी उसका मित्र नहीं होता)। 2 % %%%%% %%% % %%%%%%%%%% %% %%%%% 、 अहिंसा कोश/37]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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