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न निहन्याच्च भूतानि त्विति जागर्ति वै श्रुतिः ॥ तस्मात् सर्वप्रयत्नेन वधदण्डं त्यजेन्नृपः ।
(शु.नी.4/1/92-93) 'प्राणियों का वध नहीं करना चाहिये' ऐसी श्रुति का वचन (वेद का वचन ) है । अतः राजा को अत्यन्त प्रयत्नपूर्वक वध - दण्ड के प्रयोग को त्याग देना चाहिये ।
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नापराधं हि क्षमते प्रदण्डो धनहारकः । स्वदुर्गुणश्रवणतो लोकानां परिपीडकः ।। नृपो यदा तदा लोकः क्षुभ्यते भिद्यते यतः ।
( शु. नी. 1/129-130)
जो राजा अपराध को सहन नहीं करता है तथा उग्र दण्ड देता है, धन का हरण कर लेता है, अपने दुर्गुणों के सुनने पर कहने वाले को पीड़ा पहुंचाने लगता है, उससे प्रजा दुःखी हो उठती है और राजा से प्रेम हटा लेती है।
राजा की अहिंसक दृष्टिः कर- ग्रहण में
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मालाकारोपमो राजन् भव माऽऽङ्गारिकोपमः । तथायुक्तश्चिरं राज्यं भोक्तुं शक्ष्यसि पालयन् ॥
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(म.भा. 12/71/20)
(भीष्म का युधिष्ठिर को उपदेश - ) तुम माली के समान बनो। कोयला बनाने वाले के समान न बनो (जैसे, माली वृक्ष की जड़ को सींचता और उसकी रक्षा करता है, तब उससे फल और फूल ग्रहण करता है, परंतु कोयला बनाने वाला वृक्ष को समूल नष्ट कर देता है; उसी प्रकार माली बनकर राज्यरूपी उद्यान को सींच कर सुरक्षित रखना चाहिए और फल-फूल की तरह प्रजा से न्यायोचित 'कर' (टैक्स) लेते रहना चाहिए, कोयला बनाने वाले की तरह सारे राज्य को जला कर भस्म नहीं करना चाहिए), ऐसा करके प्रजापालन में तत्पर रहकर तुम दीर्घकाल तक राज्य का उपभोग कर सकोगे ।
अहिंसा कोश / 279]