SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 298
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ MANEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng ततो दीनान् पशून् दृष्ट्वा ऋषयस्ते तपोधनाः। ऊचुः शक्रं समागम्य नायं यज्ञविधिः शुभः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/8-12) जब इन्द्र का यज्ञ हो रहा था और सब महर्षि मंत्रोच्चार कर रहे थे, ऋत्विज लोग अपने-अपने कर्मों में लगे थे, यज्ञ का काम बड़े समारोह और विस्तार के साथ चल रहा था, उत्तम गुणों से युक्त आहुतियों का अग्नि में हवन किया जा रहा था, देवताओं का आवाहन हो रहा था, बड़े-बड़े महर्षि खड़े थे, ब्राह्मण लोग बड़ी प्रसन्नता के साथ वेदोक्त मंत्रों का उत्तम स्वर से पाठ कर रहे थे और शीघ्रकारी उत्तम अध्वर्युगण बिना किसी थकावट के अपने कर्तव्य का पालन कर रहे थे। इतने ही में पशुओं के आलम्भ (वध) का समय आया। जब पशु पकड़े लिये गये, तब महर्षियों को उन पर बड़ी दया आयी। उन पशुओं की दयनीय अवस्था देखकर वे तपोधन ऋषि इन्द्र के पास जाकर बोले-यह जो यज्ञ में पशुवध का विधान है, यह शुभकारक नहीं है। 听听听听听听听乐听听听听听听听听听听听听听听听听听圳坂听听听听听听听听听听听听听听听听玩乐听听 अपरिज्ञानमेतत् ते महान्तं धर्ममिच्छतः। न हि यज्ञे पशुगणा विधिदृष्टाः पुरंदर॥ धर्मोपघातकस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो। नार्य धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते॥ आगमेनैव ते यज्ञं कुर्वन्तु यदि चेच्छसि। विधिदृष्टेन यज्ञेन धर्मस्ते सुमहान् भवेत्॥ यज बीजैः सहस्राक्ष त्रिवर्षपरमोषितैः। एष धर्मो महान् शक्र महागुणफलोदयः॥ (म.भा.13/अनुगीता पर्व/91/13-16) पुरंदर! आप महान् धर्म की इच्छा करते हैं तो भी जो पशुवध के लिये उद्यत हो गये हैं, यह आपका अज्ञान ही है, क्योंकि यज्ञ में पशुओं के वध का विधान शास्त्र में नहीं देखा गया है। प्रभो! आपने जो यज्ञ का समारम्भ किया है, यह धर्म को हानि पहुंचाने वाला है। म यह यज्ञ धर्म के अनुकूल नहीं है, क्योंकि हिंसा को कहीं भी धर्म नहीं कहा गया है। यदि 卐 आपकी इच्छा हो तो ब्राह्मण लोग शास्त्र के अनुसार ही इस यज्ञ का अनुष्ठान करें। शास्त्रीय विधि के अनुसार यज्ञ करने से आपको महान् धर्म की प्राप्ति होगी। सहस्रनेत्रधारी इन्द्र! आप तीन वर्ष के पुराने बीजों (जौ, गेहूँ आदि अनाजों) से यज्ञ करें। यही महान् धर्म है और ॐ महान् गुणकारक फल की प्राप्ति कराने वाला है। %%%听听听听听听听听听听听听听听听¥¥¥坂巩巩巩巩巩妮妮妮妮妮妮妮妮妮听听听听听听听听听呢 EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN [वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/268
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy