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________________ 男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男男明宪宪宪宪宪 {922} यद्यधर्मरतः सङ्गादसतां वाऽजितेन्द्रियः। कामात्मा कृपणो लुब्धः स्त्रैणो भूतविहिंसकः॥ पशूनविधिनाऽऽलभ्य प्रेतभूतगणान्यजन्। नरकानवशो जन्तुर्गत्वा यात्युल्बणं तमः॥ ___ (भा.पु. 11/10/27-28) जीव अधम पुरुषों के संग में पड़कर अधर्मरत, अजितेन्द्रिय, स्वेच्छाचारी, कृपण, * लोभी, स्त्रैण (स्त्री-सदृश स्वभाव वाला) तथा प्राणिहिंसक होकर बिना विधि के ही पशुओं का वध करके भूतप्रेत आदि को बलि देता है, तो वह अवश्य परवश होकर नरक में जाता ॐ है और अन्त में घोर अन्धकार अर्थात् अज्ञान में जा पड़ता है। ___{923} ते तु तद् ब्रह्मणः स्थानं प्राप्नुवन्तीह सात्त्विकाः। नैव ते स्वर्गमिच्छन्ति न यजन्ति यशोधनैः॥ . सतां वानुवर्तन्ते यजन्ते चाविहिंसया। वनस्पतीनोषधीश्च फलं मूलं च ते विदुः॥ न चैतानृत्विजो लुब्धा याजयन्ति फलार्थिनः। ___ (म.भा.12/263/25-27) सात्त्विक महापुरुष उस ब्रह्मधाम को प्राप्त होते हैं, उन्हें स्वर्ग की इच्छा नहीं होती, # वे यश और धन के लिये यज्ञ नहीं करते, सत्पुरुषों के मार्ग पर चलते और हिंसा-रहित यज्ञों + का अनुष्ठान करते हैं। वनस्पति, अन्न और फल-मूल को ही वे हविष्य मानते हैं, धन की ॐ इच्छा रखने वाले लोभी ऋत्विज ही इनसे यज्ञ नहीं कराते हैं। {924} वेदधर्मेषु हिंसा स्याद् अधर्मबहुला हि सा। कथं मुक्तिप्रदो धर्मो वेदोक्तो बत भूपते॥ (दे. भा. 1/18/49) (श्री शुकदेव जी का जनक जी से प्रश्न-) हे राजन्! वैदिक धर्म में (कहीं-कहीं) ॐ अधर्म-बहुल (यज्ञीय) हिंसा का विधान बताया गया है, ऐसी स्थिति में उक्त धर्म मुक्तिप्रद कैसे हो सकता है? 另%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%、 अहिंसा कोश/263]
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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