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________________ 出 {918} यज्ञियाश्चैव ये वृक्षा वेदेषु परिकल्पिताः ॥ यच्चापि किंचित् कर्तव्यमन्यच्चोक्षैः सुसंस्कृतम् ॥ महासत्त्वैः शुद्धभावैः सर्वं देवार्हमेव तत् ॥ ( म.भा. 12/265/11-12 ) वेदों में जो यज्ञ-सम्बन्धी वृक्ष बताये गये हैं, उन्हीं का यज्ञों में उपयोग होना चाहिये। शुद्ध आचार-विचार वाले महान् सत्त्वगुणी पुरुष अपनी विशुद्ध भावना से प्रोक्षण आदि के द्वारा उत्तम संस्कार करके जो कोई भी हविष्य या नैवेद्य तैयार करते हैं, वही सब देवताओं को अर्पण करने के योग्य होता है । {919} शरीरवृत्तमास्थाय इत्येषा श्रूयते श्रुतिः । नातिसम्यक् प्रणीतानि ब्राह्मणानां महात्मनाम् ॥ (म.भा. 12/79/16) शरीर - निर्वाह मात्र के लिये धन प्राप्त करके यज्ञ में प्रवृत्त हुए महामनस्वी ब्राह्मणों द्वारा जो यज्ञ सम्पादित होते हैं, वे भी यदि हिंसा आदि दोषों से युक्त हों तो उत्तम फल नहीं देते हैं, ऐसे 'श्रुति' (वेद) का सिद्धान्त सुनने में आता है। 出。 (प.पु. 1/13/323 पं.त. 3/107 में आंशिक परिवर्तन के साथ) पशु की हत्या कर और खून का कीचड़ बहा कर यज्ञ किया जाय और उससे स्वर्ग-प्राप्ति होती हो तो फिर नरक किसको मिलेगा? {920} यज्ञं कृत्वा पशुं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते ॥ [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 262 {921} ( म.भा. 13/115/43 ) मांसल भी मूर्ख एवं अधम मनुष्य यज्ञ-याग आदि वैदिक मार्गों के नाम पर प्राणियों की हिंसा करता है, वह नरकगामी होता है। इज्यायज्ञ श्रुतिकृतैर्यो मार्गैबुधोऽधमः । हन्याज्जन्तून् मांसगृधुः स वै नरकभाग् नरः ॥ 鼻
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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