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ng {758} अहन्यहनि दातव्यमदीनेनान्तरात्मना। स्तोकादपि प्रयत्नेन दानमित्यभिधीयते।।
(अ. स्मृ. 40) अदीनता-पूर्वक उदार मन से प्रतिदिन कुछ न कुछ देना ही चाहिये। चाहे अपने 卐 पास थोड़ा भी हो, उसमें से भी प्रयत्नपूर्वक देना ही 'दान' कहलाता है।
{759} ब्रह्मणाऽभिहितं पूर्वमृषीणां ब्रह्मवादिनाम्॥ अर्थानामुचिते पात्रे श्रद्धया प्रतिपादनम्। दानमित्यभिनिर्दिष्टं भुक्तिमुक्तिफलप्रदम्॥
(कू.पु. 2/26/2; प.पु.3/57/1-2) योग्य पात्र को श्रद्धा-पूर्वक अपना द्रव्य (सम्पत्ति, वस्तु आदि) देना ही 'दान' कहा जाता है, और यह 'दान' (ऐहलौकिक)भोग और (पारलौकिक) मोक्ष का देने वाला है।
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अहिंसकः दान का योग्य पात्र
{760} सन्तुष्टाय विनीताय सर्वभूतहिताय च। वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः।। ईदृशाय सुरश्रेष्ठ! यद्दत्तं हि तदक्षयम्। आमपात्रे यथा न्यस्तं क्षीरं दधि घृतं मधु।। विनश्येत्पात्र-दौर्बल्यात्तच्च पात्रं विनश्यति।
(बृ. स्मृ. 1/57-59) दान सर्वदा योग्य पात्र को देना चाहिए। जो सदा सन्तोषी हो, विनम्र व्यवहार वाला है। हो, समस्त प्राणिमात्र का भला करने वाला हो, तप और ज्ञान से युक्त हो और इन्द्रियों को म संयम में रखने वाला हो, उसी को दान का योग्य पात्र कहा जाता है। उपर्युक्त गुणगणके विशिष्ट ब्राह्मण को जो दान दिया जाता है, वह अक्षय होता है और सर्वदा उसका फल प्राप्त है भ होता है। कच्चे पात्र में रक्खा हुआ दूध, दही, घृत और मधु जिस प्रकार पात्र की कमजोरी
के कारण नष्ट हो जाता है, और वह पात्र भी स्वयं नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार जो अयोग्य म.पात्र को दान दिया जाता है,वह भी निष्फल होता है।
%%%%%%%%%%% %%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%%、 वैदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/212