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{516} तथाऽरिभिर्न व्यथते शिलीमुखैः शेतेऽर्दिताङ्गो हृदयेन दूयता। स्वानां यथा वक्रधियां दुरुक्तिभिर्दिवानिशं तप्यति मर्मताडितः॥
(भा.पु. 4/3/19) शत्रुओं के द्वारा बाणों से विद्ध हो जाने पर इतना क्लेश नहीं होता जितना कि अपने * कुटिलबुद्धि वाले स्वजनों के कुवाक्यों से होता है। क्योंकि बाणों से शरीर के छिन्न-भिन्न हो
जाने पर मनुष्य के हृदय में पीड़ा रहने पर भी किसी तरह नींद आ सकती है, किन्तु दुष्टों के कुवाक्यों से मर्मस्थान के विद्ध हो जाने पर, रात-दिन बेचैनी बनी रहती है।
5171 अदेशकालज्ञमनायतिक्षमं यदप्रियं लाघवकारि चात्मनः । योऽत्राब्रवीत् कारणवर्जितं वचः न तद्वचः स्यात् विषमेव तद्वचः॥
(पं.त. 3/112) इस संसार में जो मनुष्य विना कारण ही देश-काल के विरुद्ध, भविष्य में दुःखदायी, अप्रिय और अपने ओछेपन (लघुता) को प्रकाशित करने वाला वचन बोलता है वह वचन, वचन नहीं है, अपितु विष ही होता है।
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{518} कर्णिनालीकनाराचान् निर्हरन्ति शरीरतः। वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हदिशयो हि सः॥
___ (म.भा. 5/34/79, विदुरनीति 2/79) 卐 कर्णि, नालीक और नाराच नामक बाणों को शरीर से निकाल सकते हैं, परन्तु कटु वचनरूपी बाण नहीं निकाला जा सकता; क्योंकि वह हृदय के भीतर तक धंस जाता है।
[टिप्पणी:- 1.जिधर बाण के फल का रुख हो, उससे विपरीत रुखवाले दो कांटों से युक्त बाण को कर्णी ॥ कहते हैं। शरीर में धंस जाने पर यदि उसे निकाला जाय तो वह आंतों को भी अपने साथ खींच लेता है, इसलिये अतिपीड़ादायक होता है। 2. नालीक नामक बाण अत्यन्त छोटा होता है, वह शरीर में पूरा-का-पूरा घुस जाता है, अतः उसे भी निकालना कठिन हो जाता है। 3. नाराच सम्पूर्ण लोहे का बना तीक्ष्ण बाण होता है जिसमें पांच कांटें। पंख होते हैं।]
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अहिंसा कोश/147]