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अमेध्ये वा पतेन्मत्तो वैदिकं वाप्युदाहरेत् । अकार्यमन्यत्कुर्याद्वा ब्राह्मणो मदमोहितः ॥
(म.स्मृ. 11/96)
(क्योंकि मद्यपान से मतवाला) ब्राह्मण अपवित्र ( मल-मूत्रादि से अशुद्ध नाली आदि) में गिरेगा, वेदवाक्य का उच्चारण करेगा और निषिद्ध कर्म (अहिंस्य - हिंसा आदि ) करेगा (अत एव उसे मद्यपान नहीं करना चाहिये) ।
{488}
न हि धर्मार्थसिद्ध्यर्थं पानमेवं प्रशस्यते । पानादर्थश्च कामश्च धर्मश्च परिहीयते ॥
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( वा.रामा. 4/33/46)
धर्म और अर्थ की सिद्धि के निमित्त प्रयत्न करने वाले पुरुष के लिये मद्यपान अच्छा नहीं माना जाता है, क्योंकि मद्यपान से अर्थ, धर्म और काम- इन तीनों का नाश होता है। {489}
केचिद्धसन्ति तत् पीत्वा प्रवदन्ति तथा परे । नृत्यन्ति मुदिताः केचिद् गायन्ति च शुभाशुभान् ॥ कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं प्रहरन्ति परस्परम् । क्वचिद् धावन्ति सहसा प्रस्खलन्ति पतन्ति च ॥ अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शोभने । नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टज्ञाना इवासते ॥ एवं बहुविधान् भावान् कुर्वन्ति भ्रान्तचेतनाः । ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः ॥
[वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 138
(म.भा.13/145/पृ. 5987)
(शिव द्वारा पार्वती को मदिरा पीने के दोष बताना - ) मदिरा पीने वाले उसे पीकर नशे में अट्टहास करते हैं, अंट-संट बातें बकते हैं, कितने ही प्रसन्न होकर नाचते हैं और भले-बुरे गीत गाते हैं । वे आपस में इच्छानुसार कलह करते और एक दूसरे को मारते-पीटते हैं। कभी सहसा दौड़ पड़ते हैं, कभी लड़खड़ाते और गिरते हैं। शोभने ! वहाँ जहाँ-कहीं भी अनुचित बातें बकने लगते हैं और कभी नंग-धड़ंग हो हाथ-पैर पटकते हुए अचेत से हो जाते हैं। इस प्रकार भ्रान्तचित्त होकर वे नाना प्रकार के (हिंसक) भाव प्रकट करते हैं। जो महामोह में डालने वाली मदिरा पीते हैं, वे मनुष्य पापी होते हैं।
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