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{468} ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि। मधुमांसनिवृत्त्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः॥
(म.भा. 13/115/13) जो मद्य और मांस त्याग देता है, वह दान देता, यज्ञ करता और तप करता है अर्थात् उसे दान,यज्ञ और तपस्या का फल प्राप्त होता है- ऐसा बृहस्पति का कहना है।
{469} मासि मास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम॥
(म.भा. 13/115/14; द्र. वि. ध. पु. 3/268/6) जो सौ वर्षों तक प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ करता है और जो कभी मांस नहीं खाता 卐 है- इन दोनों का समान फल माना गया है।
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{470} वर्षे वर्षेऽश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः। मांसानि च न खादेद्यः,तयोः पुण्यफलं समम्॥
(म.स्मृ. 5/53) जो प्रति वर्ष अश्वमेध यज्ञ सौ वर्ष तक करे तथा जो मांस नहीं खावे; उन दोनों * का पुण्यफल (स्वर्गादि लाभ) बराबर है।
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{471} वर्जयन्ति हि मांसानि मासशः पक्षशोऽपि वा। तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते॥
___ (म.भा. 13/115/57) जो एक-एक मास अथवा एक-एक पक्ष तक भी मांस खाना छोड़ देते हैं, हिंसा से दूर हटे हुए उन मनुष्यों को ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है (फिर जो कभी भी मांस नहीं ॐ खाते,उनके लाभ की तो कोई सीमा ही नहीं है)।
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%%%%%% %%%%%%%%%%%%%% वैदिक ब्राह्मण संस्कृति खण्ड/132