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{460} यो यजेताश्वमेधेन मासि मासि यतव्रतः। वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद् युधिष्ठिर॥
___(म.भा. 13/115/8) जो पुरुष नियमपूर्वक व्रत का पालन करता हुआ प्रतिमास अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान करे तथा जो केवल मद्य और मांस का परित्याग करे, उन दोनों को एक-सा ही फल मिलता है।
{461}
न भक्षयति यो मांसं विधिं हित्वा पिशाचवत्। स लोके प्रियतां याति व्याधिभिश्च न पीड्यते॥
(म.स्मृ. 5/50) शास्त्रोक्त विधि का त्याग कर पिशाच के समान मांस-भक्षण करने का जो त्याग करता है, वह लोगों का प्रिय बनता है तथा रोगों से पीड़ित नहीं होता।
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{462} कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च। रात्रावहनि संध्यासु चत्वरेषु सभासु च॥ उद्यतेषु च शस्त्रेषु मृगव्यालभयेषु च। अमांसभक्षणे राजन् भयमन्यैर्न गच्छति॥ शरण्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु। अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा॥
(म.भा. 13/115/26-28) जो मनुष्य मांस नहीं खाता, उसे संकट-पूर्ण स्थानों, भयंकर दुर्गों एवं गहन वनों क में, रात-दिन और दोनों संध्याओं में, चौराहों पर तथा सभाओं में भी दूसरों से भय नहीं प्राप्त
होता। यदि अपने विरुद्ध हथियार उठाये गये हों अथवा हिंसक पशु एवं सर्पो का भय
सामने हो तो भी वह दूसरों से नहीं डरता है। वह समस्त प्राणियों को शरण देनेवाला और म उन सब का विश्वासपात्र होता है। संसार में न तो वह दूसरे को उद्वेग में डालता है और न
स्वयं ही कभी किसी से उद्विग्न होता है।
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वैिदिक/बाह्मण संस्कृति खण्ड/130