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________________ 廣告 'शिव' बन ! 出 {322} त्वं हरसा तपञ्जातवेदः शिवो भव । (य.12/16) हे विज्ञ पुरुष! अपनी ज्योति से प्रदीप्त होता हुआ तू सब का कल्याण करने वाला {323} सखेव सख्ये पितरेव साधुः । (ऋ. 3/18/1 ) जैसे, हितोपदेश आदि के माध्यम से मित्र-मित्र के प्रति, और माता-पिता अपने पुत्र के प्रति हितैषी होते हैं, वैसे ही तुम सब हितैषी बनो । {324} भद्रं मनः कृणुष्व । अपने मन को भद्र (कल्याणकारी, उदार) बनाओ। {325} पापेऽप्यपापः परुषे ह्यभिधत्ते प्रियाणि यः । मैत्रीद्रवान्तःकरणस्तस्य मुक्तिः करे स्थिता ॥ (ऋ.8/19/20) (fa.g. 3/12/41) जो पुरुष कभी पापी के प्रति पापमय व्यवहार नहीं करता, कुटिल पुरुषों से भी प्रिय भाषण करता है तथा जिसका अन्तःकरण मैत्री से द्रवीभूत रहता है, मुक्ति उसकी मुट्ठी में रहती है। {326} अभयं मित्राद् अभयममित्राद्, अभयं ज्ञाताद् अभयं पुरो यः । अभयं नक्तमभयं दिवा नः सर्वा आशा मम मित्रं भवन्तु ॥ " (37.19/15/6) हमें शत्रु एवं मित्र किसी से भी भय न हो। न परिचितों से भय हो, न अपरिचितों से । न हमें रात्रि में भय हो, और न दिन में । किंबहुना, सब दिशाएँ मेरी मित्र हों, मित्र के समान सदैव हितकारिणी हों । [वैदिक / ब्राह्मण संस्कृति खण्ड / 96 ! 1
SR No.016128
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages406
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size32 MB
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