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॥ प्राक्कथन ॥
प्राचीन बिहार के सुप्रसिद्ध वज्जी गणतंत्र की राजधानी वैशाली के राजा सिद्धार्थ की पत्नी त्रिशला के गर्भ से 30 मार्च 599 ई. में 'वर्द्धमान' बालक का जन्म हुआ। राजकीय ) परिवार में सहज सुलभ अत्यधिक सुख-सुविधा व भोग-विलास की सामग्री को त्याग कर, उन्होंने 30 वर्ष की अवस्था में कठोर मुनि - जीवन की साधना अंगीकार की। 12 वर्षों की कठोरतम साधना में अपने आत्म-संयम, अप्रमाद व समत्व के बल पर क्रमशः अग्रसर होते ) हुए उन्होंने सर्वोच्च स्थिति 'वीतरागता' प्राप्त की, और 'जिन' (आत्मविजयी) कहलाये । उन्हें सम्पूर्ण निरावरण ज्ञान यानी 'सर्वज्ञता' प्राप्त हो गई थी। वे जैन धर्म के अन्तिम 24 वें ) तीर्थंकर हुए। भारत की सर्वधारण जनता को उन्होंने 30 वर्षों तक धार्मिक व आध्यात्मिक विषयों का उपदेश दिया, और 72 वर्ष की आयु में ई. पू. 527 में भौतिक शरीर को छोड़कर निर्वाण / मोक्ष प्राप्त किया।
उन्होंने समाज के सभी वर्गों को शाश्वत सुख का मार्ग दिखाया । जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में उन्होंने 'अहिंसा' की व्यावहारिकता, उपयोगिता व सार्थकता का दृष्टिकोण प्रस्तुत ) किया। उन्होंने अहिंसा को 'समता' व 'वीतरागता' की भूमिका पर प्रतिष्ठित कर उस युग की। चिंतन - धारा को एक नया आयाम दिया। भगवान् महावीर के धार्मिक उपदेशों से उस समय
) वर्ण-विषमता, विचार - संकीर्णता, धार्मिक अज्ञानता आदि के कारण प्रचलित उन अमानवीय व अन्यायपूर्ण प्रवृत्तियों को गहरा आघात लगा जो सामाजिक व धार्मिक क्षेत्र में व्याप्त थीं । '