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५३७. गणधरसार्द्धशतक स्तवन, विमलकीर्त्तिगणि / विमलतिलक उ०, स्तोत्र, राजस्थानी, १७वीं,
अ., ह. कान्तिसागरजी संग्रह ५३८. गणधरसार्द्धशतक हिन्दी अनुवाद, जिनजयसागरसूरि / जिनकृपाचन्द्रसूरि, स्तोत्र, प्राकृत
हिन्दी, २०वीं, मु., जिनकृपाचन्द्रसूरि ज्ञान भं., इन्दौर ५३९. गणधरसार्द्धशतकान्तर्गत, चारित्रसिंहगणि / मतिभद्र उ०, कथा चरित्र, संस्कृत, १७वीं, मु.,
चुन्नीलाल पन्नालाल, बम्बई ५४०. गणित साठिसौ, महिमोदयगणि / मतिहंस, ज्योतिष, राजस्थानी, १७३३, अ., ह. अभय ग्र. बीकानेर ५४१. गणितसार, ठक्कुर फेरु धंध गोत्रीय / ठक्कुर चन्द्र, गणित, प्राकृत, १४वीं, आदि-नमिऊण
तिजयनाहं..., अन्त–उद्देस पंचगतितं चंदासुय फेरुणा अओ...', मु., रा.प्रा.वि.प्र., जोधपुर ५४२. गत्यादिमार्गणा स्वोपज्ञ टीका, देवचन्द्रोपाध्याय / दीपचन्द्र उ०, प्रकरण, प्राकृत-संस्कृत,
१७८२, मु., अध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल, पादरा ५४३. गाथासहस्री, समयसुन्दरोपाध्याय / सकलचन्द्रगणि, संग्रह ग्रन्थ, संस्कृत, १६८६, अन्त
नाम्ना गाथा सहस्रति...', ह. विनय संग्रह, बालचन्द्र संग्रह रा.प्रा.वि.प्र. चित्तौड़, रा.प्रा.वि.प्र.,
जोधपुर २६४७२, मु. जिनदत्तसूरि ज्ञान भं., सूरत ५४४. गायत्रीविवरण, जिनप्रभसूरि / जिनसिंहसूरि, मन्त्रशास्त्र, संस्कृत, १४वीं, 'अन्त-इति
श्रीजिनप्रभसूरि विरचितं गायत्री विवरणं समाप्त...', मु., देवचन्दलाल भाई पु., सूरत ५४५. गिरनारतीर्थ स्तुति, देवचन्द्रोपाध्याय / दीपचन्द्र उ०, स्तोत्र, संस्कृत, १८वीं, अ. ५४६. गीतवसन्तराजकथा, लक्ष्मीचन्द्रगणि / बालचन्द्रसूरि, कथा चरित्र, संस्कृत, १९६० काशी,
__ अ., ह. हीराचन्द्रसूरि, बनारस ५४७. गीतासार टीका, गुणविनयोपाध्याय / जयसोम उ०, पुराण, संस्कृत, १७वीं, अ., उ.
नलचम्पू प्रस्तावना नन्दकिशोर शर्मा ५४८. गुणकरण्ड गुणावली चौपई, जिनहर्षगणि/शान्तिहर्षगणि, रास चौपई, राजस्थानी, १७५१
पाटण, 'आदि-श्री अरिहंत अनन्त गुण..., अन्त–ससि बांण भोजनसंवच्छरे...', अ., ह.
अभय ग्र., बीकानेर, विनय. प्रतिलिपि ५४९. गुणकरण्ड गुणावली चौपई, ज्ञानमेरुगणि / महिमसुन्दर उ०, रास चौपई, राजस्थानी,
१६७६ विगयपुर, 'आदि-प्रणमुं चोवीसे जिनपाय..., अन्त–संवत सोल छोतिरई...', अ., ह. अभय ग्र., बीकानेर, विनय. प्रतिलिपि, रा.प्रा.वि.प्र., जोधपुर २८९३४, हरिसागरसूरि ज्ञान भं.,
पालीताणा ५५०. गुणकित्वषोडशिका स्वोपज्ञ टीकासह, मतिकीर्त्ति उ० / गुणविनय उ०, व्याकरण, संस्कृत,
१७वीं, 'आदि-सर्वत्रेको गुणः प्रोक्तो..., मूल का अन्त-श्रीमद्गुरोः प्रसादेन प्रापंचि मति कीर्त्तिना..., टीका का अन्त-श्री युगप्रधान श्रीमच्छी जिनसिंहसूरि...', अ., ह. खरतरगच्छ ज्ञान भं., जयपुर, प्रेसकॉपी विनय. प्रतिलिपि
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खरतरगच्छ साहित्य कोश
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