________________
धर्म
बनप्रयोग
२२३ वनप्रयोग पुं० व्याजे पैसा धीरवानुं काम धन्वंतरि पुं० देवोनो वैद्य (समुद्रमंथन बनहर पुं० वारस (२)चोर
वखते नीकळेलां चौद रत्नोमांनुं एक) बनहार्य वि० धनथी वश कराय तेवू धन्विन् पुं० बाणावळी धनंजय पुं० अंर्जुन (२)अग्नि (३)विष्णु घम् १ प० फूंकवृं धनाढच वि० धनवान ; श्रीमंत धमघमायते (भभूकवू; सळगवू) धनाधिप, धनाधिपति, धनाध्यक्ष पुं० धमनि (नी) स्त्री० नंगळी; फूंकणी कुबेर (२) खजानची करेलु (२) रक्तवाहिनी; नस पनाचित वि० कीमती बक्षिसोथा खुश
धम्मल, धम्मिल, धम्मिल्ल पुं० पुष्प पनिक पुं० धनवान; श्रीमंत
वगेरेथी गूंथेलो अंबोडो । पनिन् वि० श्रीमंत; धनवाळं
धय वि० (बहुधा समासने छेडे) धावधनु पुं० धनुष्य
नालं; पीनारुं (उदा० 'स्तनंधय') धनुर्गुण पुं० धनुष्यनी दोरी
धर वि० (बहुधा समासने छेडे) पकडधनुर्ग्रह, धनुहि पुं० बाणावळी धनुर्ध्या स्त्री० धनुष्यनी पणछ
नारु; लई जनाएं; धारण करनारुं
(उदा० 'गदाधर') (२) पुं० पर्वत; धनुर्धर,धनुर्भूत् पुं० बाणावळी धनुर्विद्या स्त्री० बाणविद्या
पर्वत उपरनो किल्लो धनुर्वेद पुं० धनुर्विद्या (यजुर्वेदनो उपवेद)
धरण वि० धारण करनारुं (२) न० धनुष्कांड न० धनुष्य अने बाण
धारण करवू ते (३) आश्रय ; आधार धनुष्खंड न० धनुष्यनो एक हिस्सो
धरणि स्त्री० पृथ्वी (२) भूमि धनुष्पाणि वि० हाथमां धनुष्यवाळं
धरणिधर पुं० शेषनाग (२) पर्वत धनुष्मत् पुं० बाणावळी
धरणिधरसुता स्त्री० पार्वती धनुस् न० धनुष्य (बहुव्रीहि समासमां धरणिधृत् पुं० पर्वत (२) शेषनाग 'धन्वन्' थई जाय छ; उदा० 'अधिज्य- घरणिपुत्र पुं० मंगळ ग्रह (२)नरकासुर धन्वन्') (२) चार हाथ, माप धरणिभूत् पुं० राजा (२) पर्वत (३) अनुःकांड न० धनुष्य अने बाण
विष्णु (४) शेषनाग धनु:खंड न० धनुष्यनो खंड - भाग धरणिसुत पुं० जुओ 'धरणिपुत्र' बन स्त्री० धनुष्य
धरणी स्त्री० जुओ 'धरणि' बनैषिन् वि० धननी इच्छा राखनाएं धरा स्त्री० पृथ्वी (२) पुं० पैसा मागतो लेणदार धराधर पुं० पर्वत (२) शेषनाग बनोष्मन् पुं० धननी गरमी-हूंफ (२) घराधरेंद्र पुं० हिमालय धननी तीव्र इच्छा
घराधिप पुं० राजा अन्य वि० धन आपनाएं (२) श्रीमंत घराभत् पुं० पर्वत (३) सुखी ; सद्भागी (४) उत्कृष्ट ; धरित्री स्त्री० पृथ्वी (२) जमीन सद्गुणी (५) आरोग्यप्रद ; पथ्य (६) धर्म पुं० कर्तव्य ; आचार (२) कोई पण पुं० सुखी के सद्भागी मनुष्य
वर्ग के पंथनो परंपरागत आचार (३) धन्यवाद पुं० आभार दर्शाववो ते (२) शास्त्रोक्त विधान-आचार (४) चार शाबाशी आपवी ते
पुरुषार्थोमांनो एक; पुण्य कर्म के तेनुं चन्वन् पुं०, न० जळरहित प्रदेश ; रण उपार्जन (५) न्याय; प्रमाणिकता; (२) धनुष्य (३) आकाश
नीति (६) निष्पक्षता (७) स्वभाव;
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org