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इस लेख में किसी न किसी प्रकार से जो प्रतिज्ञायें की गई हैं, हम उन्हें पृथक् २ [गनग |
१ - पाश्चात्य लेखकों ने ब्राह्मणों में अन्वेषण किया है ।
२ - ब्राह्मणों का प्रधान विषय यज्ञ = sacrifice के स्वरूप की कल्पना करना है ।
३——-वैदिक-सूक्तों के कर्ताओं के भाव से ब्राह्मण बहुत परे हटे हुए हैं ।
४- -- वेदों के मूलार्थ पर प्रकाश डालने योग्य सामग्री का ब्राह्मणों में अभाव ही है ।
'५ – ब्राह्मणों में कहीं २ ही मन्त्रों के भाव का व्याख्यान है ।
६ - यह व्याख्यान प्रायः अत्यन्त काल्पनिक होते हैं ।
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- ऋषियों को जो अर्थ अभिप्रेत था, ब्राह्मण उन से सर्वथैव उलटा अर्थ समझते हैं । इस के स्पष्ट करने वाले दो उदाहरण निम्नलिखित हैं(क) कस्मै देवाय हविषा विधेम |
इतना ऋचा का भाग ऋग्वेद १० । १२१ ॥ में वार २ आता है | उस का अर्थ है
'हम किस देव की हवि से पूजा करें ।'
इसका शतपथ ७ | ४ | १ | ९ || में विचित्र व्याख्यान है, अर्थात् क ही प्रजापति है, उसे हम अपनी हवि दें ।
(ख) एक और ब्राह्मण में हिरण्यपाणि सुवर्ण हाथ वाला शब्द आया है । वहां उसे सूर्य पर लगाया गया है, तथा कहा है कि सूर्य का हाथ नष्ट होगया था, उस के स्थान में उसे एक सोने का हाथ मिल गया । ८ -- भाषा सम्बन्धी साक्ष्य को पृथक् रखकर भी ऐसे व्याख्यान बताते हैं कि
ब्राह्मण - काल से मन्त्र काल का बड़ा अन्तर हो चुका था ।
अब अध्यापक मैकडानल के कथन की परीक्षा होती है । १ – मार्टिन हॉग, आफरेखट, लिण्डनर, वैबर, बर्नल, अर्टल, डयूक गसटर आदि ने ऐतरेय आदि ब्राह्मणों के अच्छे संस्करण निकाले हैं, इस में कोई सन्देह नहीं । इन के लिये हम उनका धन्यवाद करते | परन्तु उन्होंने या शतपथानुवादक एगलिङ्ग वा तैत्तिरीय संहिता अनुवादक बै० काथ ने ब्राह्मणों में कोई सन्तोषजनक अन्वेषण किया है, ऐसा मानना हास्यास्पद बनना हैं । आधुनिक कैमिस्टरी का विज्ञान नष्ट
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