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अश्व
उदक
अश्व
पता निघण्टु ब्राह्मण
पता २॥ ९॥ वाजः
वायं वै वाजः
श. ३३१४७॥ १११४|| वाजी
वाजिनी ह्यश्वाः
श. ५/१४/१५॥ ३।१७॥ विष्णुः
विष्णुवै यज्ञः
ऐ० १११५॥ २॥ ९॥ शवः
चलं वै शवः
श० ७३।११२९॥ ॥१२॥ शुक्रम्
शुक्रा ह्यापः
तै० १७६३॥ १।१२॥ सत्यम्
आपो हि वै सत्यम् । श. ७४|११६॥ १११४॥ सप्तिः
(अश्व त्वं) सप्तिरसि ता. ११७/१॥ ११११॥ सरस्वती वाक् वाग्वै सरस्वती
श० २५/४६॥ १११२॥ सर्वम् उदक आप एव सर्वम्
गो० पू० ५।१५॥ २। ९॥ सहः बल बलं वै सहः
श० ६।६।२११४|| १। ६॥ हरितः दिशा दिशो वै हरितः
श० २।५।१५। इत्यादि । इस छोटी सी भूमिका में विस्तरमय से अधिक शब्दों के अर्थों की तुलना नहीं की जा सकती । हमारे कोष को ध्यानपूर्वक देखने से विद्वज्जन स्वयं सारी तुलना कर सकेंगें । हमने इस सूची में अधिकांश प्रमाण शतपथ से ही दिये हैं। कोष की सहायता से शेष ब्राह्मणों में से भी बहुत से ऐसे ही वाक्य मिल जायेंगे। यदि सैंकड़ों ब्राह्मण ग्रन्थ लुप्त न होजाते तो आज भी निघण्टु के प्रायः सारे ही नाम उन में से निकाले जा सकते थे। यही अवस्था निरुक्त की है। निरुक्त में तो यास्क स्वयं
इति ब्राह्मणम् । इति ह विज्ञायते ।
कह कर अपने अर्थ की पुष्टि ब्राह्मण वाक्यों से करता है । इस लिये हम निश्चयात्मक रूप से कह सकते हैं कि यास्कीय निरुक्त, निघण्टु का प्रधानतया मूल ब्राह्मण ग्रन्थ ही हैं।
इस कोष में अनेक पदों के वे अर्थ भी हैं, जो कि इस निघण्टु या निरुक्त में नहीं मिलते । हो सकता है, उन्हें और निघण्टुकारों ने एकत्र किया हो । फिर भी जैसा यास्कःने कहा है
भूयांसि तु समाननात् ७१३॥
उन प्राचीनों से भी कई रह गये हों । हमारे इस कोष में उन सब के हो संग्रह का प्रयत्न किया गया है।
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