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क्यों करें ? क्योंकि ऋषियों में पक्षपातादि दोष नहीं होते हैं । ऋषि लोगों ने कहीं २ वेद विचार प्रकरण में ब्राह्मण पुस्तकों के वाक्य भी रक्खे हैं सो व्याख्यान व्याख्येय का तादात्म्य सम्बन्ध मान के "" तदेव सूत्रं विगृहीतं व्याख्यानं भवति " कहा है अर्थात् व्याख्येय मूल पुस्तक में जो पद हैं उन्हीं को लौट पौट कर वा उपयोगी अन्य पद लगा कर अन्वित कर देना व्याख्यान कहाता है । इस कारण ब्राह्मण वाक्य वेद विचार प्रकरण में लेना अनुचित नहीं अथवा ब्राह्मण वाक्यों को वेद के तुल्य मानकर उदाहरण देना बन सकता है । "छन्दोवत् सूत्राणि भवन्ति” इस के अनुसार जब व्याकरणादि के सूत्रों में वेद के तुल्य कार्य होते हैं तो वेद के अति निकटवर्त्ती ब्राह्मणों में वेद तुल्य कार्य होवें तो कुछ आश्चर्य की बात नहीं है । यदि वेद में जैसे कार्य होते हैं वैसे ब्राह्मणों में होने से उनको मूल वेद मान लिया जावे और मनुष्य बुद्धिरचित न माना जावे तो सूत्रादि को भी ऋषि रचित न मानना चाहिये क्योंकि वहां भी छन्दोवत् कार्य होते हैं तो उनको भी वेद मान लिया जावे ? जब ऐसा नहीं होता तो ब्राह्मण भी मूल वेद नहीं होसकते और ब्राह्मण का मनुष्यबुद्धिरचित होना उन्हीं के पद वाक्यों की रचना से सिद्ध हो जाता है किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं ।" इति ।
इसके आगे सूत्र २ । १ । ६१ ॥ में जो वात्स्यायन का लेख है, उससे भी ब्राह्मण-ग्रन्थों का वेद न होना ही सिद्ध होता है । वात्स्यायन कहता हैंप्रमाणं शब्दः । यथा लोके । विभागश्च ब्राह्मणवाक्यानां त्रिविधः ।
अर्थात् - शब्द - प्रमाण मानना ही पड़ेगा । जैसे व्यवहार में शब्द प्रमाण माने विना काम नहीं चलता, वैसे ही आप्तों के उपदेश को भी प्रमाण मानना चाहिये । और जैसे व्यवहार में त्रिविध वाक्य विभाग है, वैसे ही ब्राह्मणों में भी है । जैसे व्यवहार में पुराकल्प आदि हैं, वैसे ही ब्राह्मणों में भी हैं । परन्तु श्रुति सामान्य हैं । इसके विपरीत ब्राह्मण में इतिहास है । अतएव इतिहासादि होने से ब्राह्मणों के शब्द मन्त्रों की अपेक्षा लौकिक ही हैं। इस लिये ब्राह्मण वेद नहीं |
प्रश्न – मोहनलाल कहता है पूर्वोक्त वाक्य का भाव ऐसे कहना चाहिये“प्रमाणं शब्दो यथा लोके" इति सादृश्यार्थक यथापदघटितं ब्रूते च तथेति । लोके यथा शब्दप्रमाणं तथा वेदेपीत्यध्याहार्यम् । वेदे ब्राह्मणरूपे ब्राह्मणसंज्ञकानां वाक्यानां विभागस्त्रिविधः इत्यर्थस्य तात्पर्यविषयत्वात् । "
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