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तथा--- वंदे ऽपि
य एवं विश्वसृजः सत्त्राण्यध्यास्त इति तेषामनुकुर्वस्तद्वत् सत्त्राण्यध्यासीत सोऽप्यभ्युदयेन युज्यते ॥
( कील० सं० पृ. २०) इत्यादि पाठ है । ये पाठ ब्राह्मणों में ही मिलते है । इन से स्पष्ट हो जाता है कि पतञ्जलि मुनि ब्राह्मणों को वेद मानते थे ।
उत्तर-ब्राह्मणों की भाषा वह नहीं, जो मन्त्रों का भाषा है । न ही ब्राह्मणां की भाषा सर्वथा लौकिक है । ब्राह्मणों की भाषा प्रवचन की भाषा है । ब्राह्मण वेद. च्याख्यान हैं । वेद-व्याख्यान होन से तथा प्रवचन की भाषा में होने से ही इन्हें वेद के अत्यन्त साप माना जाता है। जिस प्रकार से इस समय भी हम कल्पों को वैदिक तो मानते हैं पर साक्षात् ईश्वरप्रांत वेद नहीं, वैसे ही प्राचीन लोग भी ब्राह्मणों को वैदिक तथा औपचारिक दृष्टि से वेद कह देते थे।
___ महाभाष्य के प्रस्तुत वाक्य में भी पतञ्जलि का यही अभिप्राय है । पतञ्जलि इस से पूर्व कात्यायन का वाक्य पढ़ता है----
यथा लौकिकवैदिकेषु ।
इसी पर चलते २ वह लोक के प्रतिपक्ष में ब्राह्मणों को वेदवत् मानकर उन का प्रमाण उद्धृत करता है । इस में और कोई बात नहीं । महाभाप्य में अन्यत्र भी ऐसा ही समझना।
* सायण आदि पूर्वपक्षी लोग भी ऐसा ही मानते हैं
तत्र शतपथब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वाद् व्याख्येयमन्त्रप्रतिपादकः संहिताग्रन्थः पूर्वभावित्वात् प्रथमो भवति ।
___ काण्वसंहिता भाग्यम् पृ० ८ । तथा च
यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदस्तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानरूपत्वान्मन्त्रा एवादी समानाताः ।
तैत्तिरीयसंहिता भाष्यम् पृ० ७ । आनन्दाश्रम सं० ॥
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