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(ख) परम विद्वान, वेदविद् भगवान् मनु अपने धर्मशास्त्र में कहते हैंउपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः । सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्य प्रचक्षते ।। २ । १४० ॥
इस श्लोक में रहस्य शब्द आया है । "रहस्य" शब्द आरण्यक अथवा उपनिषद् का द्योतक है । उपनिषद् और आरण्यक आजकल ब्राह्मणों का भागमात्र हैं । मनु इनका वेद से पृथङ् निर्देश करते हैं । अतएव मनु जी की दृष्टि में ब्राह्मण वेद नहीं हैं ।
मेधातिथिप्रभृति मनु के टीकाकार स्वपक्ष में इस आपत्ति को देख कर अनेक कल्पनाएं उठाते हैं, पर वे सब कल्पनाएं ऐसी ही हैं जो किसी असत्य पक्ष को छिपा तो सकती हैं, हटा नहीं सकतीं ।
प्रश्न -- महामोहविद्रावण के लिखाने वाले राममिश्र शास्त्री आदि तथा उस का लिखकर प्रकाशित करने वाला मोहनलाल स्वग्रन्थ के प्रथम प्रबोध में कहता हैं“तथा हि षष्ठेऽध्याये मनुः
एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन् । विविधाश्रपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः ॥ २९॥
अत्र “औपनिषदीः श्रुतीः" इत्युक्तया उपनिषदां श्रुतिशब्दवाच्यत्वं श्रुतिशब्दस्य वेदान्नायपदपयत्वम् । यथाह मनुरेव ---
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः । २ ॥ १० ॥
अतएव -
दशलक्षणकं धर्ममनुतिष्ठन् समाहितः । वेदान्तं विधिवच्छ्रुत्वा संन्यसेदनृणो द्विजः ।। ६ । ९४ ॥
इत्यादि मानवशास्त्रे वेदान्तपदेनोपनिषदां परिग्रहः । " इति
उत्तर – जिस ब्राह्मण को पूर्वपक्षी वेद मानता है, जब वही ब्राह्मण रहस्य, उपनिषद् और ब्राह्मण को वेद नहीं मानता, तो मनुजी उसके विरुद्ध कैसे कह सकते हैं। और मनुजी के अपने लेख में भी परस्पर विरोध नहीं होना चाहिये । अत एव मनुं अध्याय २ के श्लोक ८-१५ तक का यही समन्वय है कि स्मृति के प्रतिपक्ष में: श्रुति
* वेदान्ताचार्य मोहनलाल के मित्र वा अध्यापक श्री पूज्य स्वा० अच्युतानन्दजी ने यह त हम से कही थी ।
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