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अणंतइ-अणप्प
पाइअसहमहण्णवो
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कुलकर (सम १५०)। २ एक अन्तकृद् मुनि अणगार वि[अनाकार] प्राकृति-शून्य, प्राकार- (आव ६)। ३ वि. निष्कारण, वृथा, निष्फल (अंत ३).
रहितः 'उवलंभव्ववहाराभावो नाणगारं च' (निचू १; पण्ह २, १)। अणंतह पुं[अनन्तजित्] चालू काल के चौद- (विसे ६५)।
दंड पुं[दण्ड निष्कारण हिंसा, बिना ही हवें जिन-देव; (पउम ५, १४८) । अणगारि पुं [अनगारिन्] साधु, यति, मुनि प्रयोजन दूसरे की हानि (सूत्र २, २) । अणंतग) १ देखो अणंत (ठा ५,३)। २ न. (सम ३७) ।
अणड पुं[दे] जार, उपपति (दे १,१८ षड्)। अणंतय । वस्त्र-विशेष (मोघ ३६)। ३ पुं. अणगारिय वि [आनगारिक] साधु-संबन्धी, ऐरवत क्षेत्र के एक जिनदेव (सम १५३)।
अणडढ वि [अनर्ध] विभाग-रहित, प्रखण्ड मुनि का (विसे २६७३)।
(ठा ३, ३)। अर्णतय न [अनन्तक] वस्त्र, कपड़ा (पब २)। अणगाल पुं [अकाल] दुर्भिक्ष, अकाल
| अणण्ण वि [अनन्य] १ अभिन्न, अपृथग्भूत अणंतर वि [अनन्तर] १ व्यवधान-रहित, अव्य
(निचू १)। २ मोक्ष-मार्ग, 'अणएणं चरमाणे वहित; 'अणंतरं चयं चइत्ता' (गाया १,८)। अणगिण वि [अनन] १ जो नंगा न हो, वस्त्रों
से रण छरणे ण छणावए' (प्राचा)। ३ असा२. वर्तमान समय (ठा १०)। ३ क्रिवि. बाद
से आच्छादित। २ पुं. कल्पवृक्ष की एक जाति,
| धारण, प्रद्वितीय (सुपा १८९; सुर १, ७)। में, पोछे (विपा १, १)। जो वस्त्र देता है (तंदु)।
तुल्ल वि [ तुल्य असाधारण, अनुपम (उप अणग्घ देखो अनघ (कुप्र १)। 'अणंतरहिय वि [अनन्तहित] १ अव्यवहित,
६४८ टी) । दसि वि [°दर्शिन] पदार्थ को अणग्घ वि [ऋणघ्न] ऋण-नाशक, कर्मव्यवधान-रहित (प्राचा)। २ सजीव, सचित्त,
सत्य-सत्य देखनेवाला (प्राचा)। परम वि नाशक (दंस)। चेतन (निचू ७)।
[परम संयम, इन्द्रिय-निग्रहः 'अगरणपरमे अणग्ध वि[अनये] १ अमूल्य, बहुमूल्य, अणंतसो अ[अनन्तशस् ] अनन्त बार (दं अणग्घेय कीमती (प्राव ४); 'रयणाई
पाणी, णो पमाए कयाइवि' (प्राचा)। मण, ४५)। अरणग्घेयाई हुँति पंचप्पयारवरणाई' (उप
मणस वि [ मनस्क] एकाग्र चित्तवाला, अणंताणुबंधि पुं [अनन्तानुबन्धिन] अनन्त ५६७ टी; स८०)। २ महान्, गुरु। ३ उत्तम,
तल्लीन (प्रौपः पउम ९, ६३)। समाग वि काल तक आत्मा को संसार में भ्रमण करानेश्रेष्ठ; 'तं भगवंतं अरणहं नियसत्तीए अरणग्घभ
[समान असाधारण, अद्वितीय (उप ५६७ वाले कषायों की चार चौकड़ियो में प्रथम तीए, सकारेमि' (विवे ६५ ७१) ।
टी)। चौकड़ी, अतिप्रचंड क्रोध, मान, माया और लोभ
अणत्त वि [अनात्त प्रगृहीत, अस्वीकृत (ठा अणघ वि [अनघ] शुद्ध, निर्मल, स्वच्छ (पंचव (सम १६)। अणंस वि [अनंश] अखण्ड (धर्मसं ७०६)।
अणत्त वि [अनाते अपीडित, 'दयावइमाईसुं अणच्छ देखो करिस = कृष् । अरगच्छइ (हे अणक पुं[दे] १ एक म्लेच्छ देश । २ एक
अत्तमणत्ते गवसणं कुणई' (वव १) । ४, १८७)। म्लेच्छ जाति (परह १, १)। अगच्छिआर वि [दे] अच्छित्र, नहीं छेदा
अणत्त वि [ऋगार्त] ऋण से पीड़ित (ठा अगक्ख पुं[दे] १ रोष, गुस्सा, क्रोध (सुपा
अगज वि [अन्याय्य] अयोग्य, जो न्याय- . १३:१३०,६१० भवि)। २ लजा (स ३७६)।
अणत्त वि [अनात्र] दुःखकर, सुख-नाशक
'णेरइमारणं भंते ! कि अत्ता पोग्गला अगत्ता अणक्खर न [अनक्षर] श्रुत-ज्ञान का एक | युक्त नहीं (पएह १, १)।
वा' (भग १४, ६)। भेद-वर्ण के बिना संपर्क के, छींकना, चुटकी अणज वि [अनार्य] आर्य-भिन्न, दुष्ट, खराब,
अगत्त न [दे] निर्माल्य, देवोच्छिष्ट द्रव्य बजाना, सिर हिलाना आदि संकेतों से दूसरे का पापी (पराह १, १, अभि १२३)।
(दे १, १०)। अभिप्राय जानना (मंदि)।
अणज्जव (अप) ऊपर दखा। खड पुरखण्ड] अगत्थ देखो अण? (पउम ६२, ४; श्रा २७ अणगार वि [अनगार] १ जिसने घर-बार अनार्य देश, (भवि ३१२, २)।
सण)। त्याग किया हो वह, साधु, यति, मुनि (विपा अणज्झवसाय पुं[अनध्यवसाय] अव्यक्त
अणथंत वकृ [अतिष्ठत् ] १ नहीं रहता १, १, भग १७, ३)। २ घर-रहित, भिक्षुक, ज्ञान, अति सामान्य ज्ञान (विसे ६२)
हुआ। २ अस्त होता हुआ, 'प्रणयंते दिवसयरे भीखमँगा (ठा ६)। ३ पुं. भरतक्षेत्र के भावी अणज्झाय पुं[अनध्याय १ अध्ययन का
जो चयइ उब्विहंपि आहार' (पउम १४ पांचवें तीर्थंकर का एक पूर्वभवीय नाम (सम अभाव । २ जिसमें अध्ययन निषिद्ध है वह काल
१३४)। १५४)। (नाट)।
अणन्न देखो अणण्ण (सुपा १८६; सुर १, 'सुय न [ श्रुत] 'सूत्रकृतांग' सूत्र का एक अध्य- अणट्ट वि [अनात तांग सूत्र का एक अध्य- अगट्ट वि [अनात पात-ध्यान से रहित,
पात-ध्यान से रहित,
७; पउम ६, ६३) । यन (सूत्र २, ५)। 'अरगट्टा कित्ति पव्वए' (उत्त १८, ५०)।
अणपन्निय देखो अणवण्गिय (भग १०,२) । अणगार वि [ऋणकार] १ करजा करनेवाला। अणट्ठ [अनर्थ] १ नुकसान, हानि (णाया अगप्प वि [अनl] अर्पण करने के अयोग्य २ दुष्ट शिष्य, अपात्र (उत्त १) ! । १,६ उप ६ टी)। २ प्रयोजन का अभाव | या अशक्य (ठा )।
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