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८७२ पाइअसहमहण्णवो
समीहिय-समुजल समीहिय वि [समीहित] इष्ट, वांछित औपः परण ३६-पत्र ८३७, महा)। २ समुच्चिय वि [समुच्चित] एक क्रिया प्रादि (महा)।
पक्षि-विशेष (जी २२; ठा ४, ४–पत्र में प्रन्वित (विसे ५७६)। समीहिय डेखो समिक्खिअ (वव ३)। २७१)
समुच्छ सक [समुत् + छिद्] १ उन्मूलन समुआचार पुं [समुदाचार] समीचीन समुग्गद (शौ) वि [समुद्गत] समुद्भूत, | करना, उखाड़ना। २ दूर करना । समुच्छे पाचरण (दे २, ६४)। समुत्पन्न (नाट-मालती ११६) ।। (सूत्र १, २, २, १३)। भवि. समुच्छिहिति
(सूम २, ५, ४)। संकृ. समुच्छित्ता समुइअ वि [समुचित] योग्य, उचित (से समुग्गम पुं[समुद्गगम] समुद्भव (नाट
(सूम २,४,१०)।१३, ६८ महा)। रत्ना १३)।
समुच्छइय वि [समवच्छादित 7 सतत समुइअ वि [समुदित] १ परिवृत, 'गुण- समुग्गिअ वि [दे] प्रतीक्षित (दे ८, १३)।
प्राच्छादित (पउम ६३, ७)।समुइओं (उवः स २८६)। २ एकत्रित समुग्गिण वि [समुद्गीण] उगामा हुआ, समुच्छणी स्त्री [दे] संमार्जनी, झाडू (दे (विसे २६२४) । उत्तोलित, ऊपर उठाया हुअा (पउम १५,
८, १७) - समुइन्न वि [समुदीर्ण] उदय-प्राप्त (सुपा
समुच्छल प्रक [समुत + शल्] १ ६१४)।
समुग्गिर सक [समुद् + गृ] ऊपर उठाना, | उछलना, ऊपर उठना। २ विस्तीर्ण होना। समुईर देखो समुदीर । कम, ‘जह वुड्ढगाण |
1. उगामना । व. समुग्गिरंत (पउम ६५, समुच्छले (गच्छ १, १५) । वकृ. समुच्छलंत मोहो समुईरइ किनु तरुणाण' (गच्छ ३,
(सुर २, २३६)। १५)।
समुग्घडिअ वि [समुद्घाटित] खुला हुआ समुच्छलिअ वि [समुच्छलित] १ उछला समुक्कस देखो समुकरिस (उत्त २३, ८८)। (धर्मवि १५)।
हुआ । २ विस्तीर्ण (गच्छ १, ६ महा)।" समुत्तिय वि [समुत्कतित] काट डाला
समुग्धाइअ वि [समुद्घातित विनाशित समुच्छारण न [समुत्सारण] दूर करना हुमा (सुर १४, ४५)।(प्रासू १६५)
(अभि ६०) समुक्करिस पुं [समुत्कर्ष] अतिशय उत्कर्ष
समुग्घाय पुं[समुद्घात 1 कम-निर्जरा समुच्छिअ विदे] १ तोषित, संतुष्ट किया (उत्त २३, ८८ सुख २३, ८८)। विशेष, जिस समय प्रात्मा वेदना, कषाय
हुमा । २ समारचित । ३ न. अंजलि-करण, समुक्कस सक [ समुत् + कृष्] १ उत्कृष्ट प्रादि से परिणत होता है उस समय वह
नमन (द ८,४६)। बनाना । २ अक. गर्व करना। समुक्कसेन्जा
अपने प्रदेशों को बाहर कर उन प्रदेशों से समुच्छिद (शौ) वि [समुच्छ्रित] प्रति(ठा ३, १-पत्र ११७), समुक्कसंति (प्रासू वेदनीय, कषाय आदि कर्मों के प्रदेशों की जो
उन्नत (पि २८७)निर्जरा-विनाश करता है वहः ये समुद्घात
समुच्छिन्न वि[समुच्छिन्न] क्षीण, समुक्किट्ठ वि [समुत्कृष्ट] उत्कृष्ट (ठा ३, सात हैं-वेदना, कषाय, मरण, वैक्रिय,
विनष्ट (ठा ४, १ पत्र-१८७)।. १-पत्र ११७)।
तैजस, प्राहारक और केवलिक (परण ३६-- | समुच्छंगिय वि [समुच्छ,ङ्गित] टोच पर समुक्कित्तण न [समुत्कीर्तन उच्चारण (सुपा
पत्र ७६३; भगः प्रौप; विसे ३०५०)। चढ़ा हुआ (हम्मीर १५) । १४६)। समुग्घायण न [समुद्घातन] विनाश
समुच्छुग वि [समुत्सुक] अति-उत्कण्ठित समुक्खअ वि [समुत्खात] उखाड़ा हुआ | (विसे ३०५०)।
(सुर २, २१५, ४, १७७)। (गा २७६)।
समुग्घुट वि [समुद्घोषित ] उद्घोषित समुच्छेद । पु[समुच्छेद सर्वथा विनाश समुक्खण सक [समुत् + खन्] उखाड़ना। (सुर ११, २६)।
समुच्छे य (ठा ८-पत्र ४२५, राज) 1. समुक्खणइ (गा ६८४)। वकृ. समुक्खणंत
'वाइ वि [वादिन] पदार्थ को प्रतिक्षण समुघाय देखो समुग्घाय (दं ३)। (सुपा ५४१)।
सर्वथा विनश्वर माननेवाला (ठा ८-पत्र समुक्खणण न [समुत्खनन] उन्मूलन, समुच्चय पुं[समुञ्चय] विशिष्ट राशि, ढग,
४२५; राज)उत्पाटन (कुप्र १७४) । समूह (भग ८, ६-पत्र ३६५; भवि)।
समुज्जम प्रक [समुद + यम् ] प्रयत्न समुक्खित्त वि [समुत्क्षिप्त] उठा कर फेंका समुच्चर सक [समुत् + चर ] उच्चारण
करना। वकृ. समुज्जमंत (पउम १०२, हुआ (से ११, ७२) करना, बोलना। समुच्चरइ (चेइय ६४१) ।
१७६; चेइय १५०)। समुक्खिव सक [ समुत् + क्षिप्] उठा | समुञ्चलिअ वि [समुच्चलित] चला हुआ समुज्जम सिमुद्यम] १ समीचीन उद्यम। कर फेंकना । समुक्खिवइ (पि ३१६; सण)। (उप पृ ४८; भवि)।
२ वि. समीचीन उद्यमवाला (सिरि २४८)। समुग्ग पुं [-मुद्ग] १ डिब्बा, संपुट (सम समुच्चिण सक [समुत् + चि] इकट्ठा करना, समुज्जल वि [समुज्ज्वल] प्रत्यन्त उज्ज्वल ६३; अणु; णाया १, १७ टी धर्मवि १५; । संचय करना । समुच्चिरणइ (गा १०४)। । (गउड; भवि)।
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