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पाइअसद्दमहण्णवो
संचरण-संजम २४, सुर ३,७६; नाट-चैत १३०)। कृ. संचालिअ वि [संचालित] चलाया हुमा छोड़ना, इकट्ठा करना; 'संछहई एगगेहम्मि'
(पिंड ३११)। संचरणिज्ज, संचरिअव्व (नाट-वेणी (से ४, २७)
संचिक्ष वि[संचित] संगृहीत (प्रोध ३२६ संछोभ [संक्षेप] अच्छी तरह फेंकना, १४. से १४, २८)।
भवि; नाट.-धेरणी ३७, सुपा ३५२)। क्षेपण (पंच ५, १५६; १८.)। संचरण न [संचरण] १ चलना, गति । २
संछोभग बि [संक्षेपक] प्रक्षेपक (राज)। सम्यग् गति (गउड पि १०२, कप्पू)।- संचितण न [संचिन्तन] चिन्तन, विचार | (हि २२)
संछोभण न [संक्षेपण] परावर्तन (राज) ।। संचरिअ वि [संचरित] चला हुआ, जिसने
संचितणया स्त्री [संचिन्तना] कार देखो संजइ पुंस्त्री [संयति] उत्तम साधु, मुनि संचरण किया हो वह (उप पृ ३५८ रुक्मि ! (उत्त ३२, ३)
'संजईण दलिगोगमंतरं मेरुसरिसवसरिच्छं ५६, भवि)।
संचिक्ख अक[सं + स्था] रहना, ठहरना, संचलण न संचलन] संचार, गति (गउड)।
(संबोध ३६)। अच्छी तरह रहना, समाधि से रहना। संजई स्त्री संपती] साध्वी (पोघ १६, संचलिअ वि [संचालत] चला हुआ (सुर ३, १४० महा). संचिक्खइ (प्राचा १,६,२,२)। संचिक्खे . महा; द्र २७)।
संजणग वि [संजना] उत्पन्न करनेवाला संचल्ल सक[सं+ चल] चलना, गति (उत्त २, ३३; अोध ६६)। संचिजमाग देखो संचिग ।
(सुर ११, १६६)। करना । संचल्लइ (भवि)।
संजणण न [संजनन] १ उत्पत्ति । २ वि. संघल्ल (अप) देखा संचलिय (भवि)। संचिट्ठ देखो संचिक्ख । संचिट्ठइ (भगः उवाः ।
उत्पन्न करनेवाला (सुर ६. १४२; सुपा महा)। संचल्लिा देखो संचलिअ (महा)।
३८२) । स्त्री. णी (रत्न २८)। संचिट्ठण न [संस्थान अवस्थान (पि ४८३)। संचाइय वि संशकित] जो समर्थ हुआ
संजणय देखो संजणा (चेइय ६१५, सुपा संचिण सक [सं+चि] १ संग्रह करना, ' हो वह (भग ३, २ टी-पत्र १७८)
३८ सिक्खा २६)। इकट्ठा करना । २ उपचय करना । संचिणेइ, संचाय प्रक[सं + शक] समर्थ होना।
। संजणिय वि [संजनित] उत्पादित (प्रासू
संचिणइ, संचिणंति (श्रु १०७ पि ५०२)। संचाएइ (भग, उवा, कस), संचाएमो (सून
१४६; सण)। संकृ. संचिणित्ता (सूम २, २, ६५, भग)। २, ७, १०, णाया १,१८-पत्र २४०)।
संजत्त सक [दे] तैयार करना। संजत्तेह
कवकृ. संचिजमाण (प्राचा २,१, ३, २) (स २२) । संचाय[संत्याग] परित्याग (पंचा १३,
संचिणिय वि [संचित] संगृहीत (स ४४३)। संजत्ता स्त्री [संयात्रा] जहाज की मुसाफिरी
संचिन्न वि[संचीण भाचरित (सण)। (णाया १, ५-पत्र १३२) । संचार सक[सं + चारय ] संचार कराना। संचारइ (भवि) । संकृ. संचारि (अप)
| संचुण्ण सक [ सं +- चूर्णय ] चूर-चूर संजत्ति स्त्री [दे] तैयारी; 'प्राणत्ता निय
करना, खंड-खंड करना, टुकड़ा-टुकड़ा करना। पुरिसा संजत्ति कुणह गमगत्थं' (सुर ७, (पिंग)।
कवकृ. संचुगिजंत (पउम ५६, ४४)।। १३०; स ६३५, ७३५; महा)। देखो संचार संचार संचरण, गति (गउड; महाः भवि)।
संचुण्णि) वि [संचूर्णित] चूर-चूर संजुत्ति ।
संचुन्नि किया हुपा (महा; भविः संजत्तिअ वि [दे] तैयार किया हुमा (स संचारि वि संचारिन्] गति करनेवाला
_णाया १, १-पत्र ४७; सुर १२, २४१)।- ४४३)। (कप्पू)।
संचेयणा स्त्री [संचेतना] अच्छी तरह सूध, संजत्ति, वि [सांयात्रिक] जहाज से संचारअवि [संचारित] जिसका संचार
चार भान; 'लद्धसचेयपाउ' (सिरि ६५७)। संजत्तिग । यात्रा करनेवाला, समुद्र-मार्ग का कराया गया हो वह (भवि)। संचोइय वि संचादित] प्रेरित (ठा ४, ३ |
मुसाफिर (सुपा ६५५; ती ; सिरि ४३१; वि[संचारिम संचार-योग्य, जाटी -पत्र २३८) ।
पब २७६; हे १,७०, महा; गाया १, एक स्थान से उठा कर दूसरे स्थान में रखा संछइय । वि[संछन्न ढका हुआ (उप
८--पत्र १३५) जा सके वह (पिंड ३००; सुपा ३५१)। संकण्ण पृ १२३; सुर २, २४७; सुपा संजत्थ वि [दे] १ कुपित, कुद्ध। २ पुं. संचारी स्त्री दे] दूत-कर्म करनेवाली स्त्री संछन्न ५६२; महा सण)
क्रोध दे८,१०)। (पाय: षड़)।
संछाइय वि [संछादित] ढका हुआ (सुपा संजद देखो संजय = संयत (प्राप्र; प्राकृ १२; संचाल सक [सं + चालय ] चलाना। । ५६२)।
संक्षि) संचालइ (भवि) । कवकृ. संचालिज्जत, संछाय सक [ सं + छादय ] ढकना । वकृ. संजम अक [सं + यम्] १ निवृत्त होना । संचालिजमाण (से ६, ३६; णाया १, संछायंत (पउम ५६, ४७)।
२ प्रयत्न करना। ३ व्रत-नियम करना। ४ -पत्र १५६)।
संछुह सक [सं + क्षिप्] एकत्रित कर सक. बाँधना। ५ काबू में करना। कर्म.
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