________________
विअ-विअड
पाइअसहमहण्णवो विअ सक [विद्] जानना। वियसि (विसे विअंगिअ विदे] निन्दित (दे ७, ६६) विअक्खण वि [विचक्षण] विद्वान्, पण्डित,
१६००)। भवि. विच्छं, वेच्छं (पि ५२३; विअंगिअ वि [व्यङ्गित] खण्डित, छिन्न दक्ष (महा प्रासू ४१; भविः नाट–वेणी ५२६; प्राप्र; हे ३, १७१)। वकु. विअंत (पएह १, ३–पत्र ४५; टी-पत्र ४६) २४)। (रंभा)। संकृ. विइत्ता, विइत्ताणं, विइत्त | विअंजण देखो वंजण = व्यञ्जन (प्राकृ ३१ | विअग्ग वि[व्यग्र] व्याकुल (प्राकृ ३१)(पाचा दा १०, १४)। | सम्म ७२) ।
विअग्घ देखो वग्घ = व्याघ्रः -महिसवि विअ न [वियत् ] आकाश, गगन (से ६, विजिअ बि [व्यञ्जित] व्यक्त किया हुमा,
(?वियोग्घछगलदीविया-' (पएह १,१४८) चर वि | चर] पाकाश-विहारी। प्रकट किया हुमा (सूप २,१, २७, ठा ५,
पत्र ७ पि १३४)।। "घरपुर न [चरपुर] एक विद्याधर-नगर २-पत्र ३०८)
विअग्ध पुं [वैयाघ्र व्याघ्र-शिशु (पएह १, विअंटूत वि [दे] १ अवरोपित । २ मुक्त (इक)
१-पत्र १८)। विअ वि [विद्] १ जानकार, विद्वान्। 'तं | (षड् १७७ )।
विअज्जास देखो विवज्जास (नाट-मृच्छ च भिक्खू परिनाय वियं तेसु न मुच्छए' विअंति स्त्री [व्यन्ति] अन्त क्रिया। कारय
३२६) (सूम १, १, ४, २) । २ विज्ञान, जानकारी वि [कारक अन्त-क्रिया करनेवाला, कर्मों
विअट्ट सक [विसं + वद् अप्रमाणित का अन्त करनेवाला, मुक्ति-साधक (प्राचा
करना, असत्य साबित करना। विभट्टइ (हे विअ देखो इव (हे २, १८२, प्राप्रः स्वप्न | १, ८, ४, ३)
४, १२६) २७) कुपाः पउम ११, ८१, महा) - विअंभ प्रक [वि + जृम्भ ] १ उत्पन्न |
होना। २ विकसना। ३ जंभाई खाना । विअ [वृक] श्वापद जन्तु-विशेष, भेड़िया
विअट्ट अक [वि + वृत्] विचरना, विश्रंभइ (हे ४, १५७ षड् (नाट--उत्तर ७१)।
विहरना । वक, 'गिम्हसमयंति पत्ते वियट्टभवि)। वकृ.
माणे (सु?) वणेसु वणकरेणुविविदिएणविअ
विअंभंत, विभमाण (धात्वा १५२, से व्यय विगम, विनाश; 'पंचविहे छेयणे पन्नत्ते, तं जहा–उप्पाछेयणे वियच्छे१, ४३; गा ४२५; महा)।
कयपंसुघामो तुम' (गाया १, १-पत्र दणे (ठा ५, ३–पत्र ३४६)।
विअंभ वि [विदम्भ निष्कपट, सत्यः 'प्रयाविअ वि [विगत] विनष्ट, मृत । चाली |
विअट्ट वि [विवृत्त निवृत्त, व्यावृत्तः 'विप्रणयं वियंभसुहस्स' (स ६६०)।
दृछउमेणं जिणेणं' (सम १; भगः कष्पा [र्चा] मृत प्रात्मा का शरीर (ठा १- विअंभण न [विज़म्भण] १ जंभाई, जम्हाई
प्रौपः पडि) भोइ वि [ भोजिन् ] पत्र १६) (स ३३६; सुपा १४६) । २ विकाश । ३ |
प्रतिदिन भोजन करनेवाला (भग)विअ देखो अविअ - अपिच (जीव १)।
उत्पत्ति (भवि; माल ८४) ।
विअट्ट ' [विवर्त] प्रपञ्च (स १७८) । विअइ वि [विजयिन् ] जिसकी जीत हुई। विभिअ वि [विजृम्भित] १ प्रकाशित
विअट्ट । वि[विसंवदित संवाद-रहित, हो वह (मा २२)(गा ५६४) । २ उत्पन्न (माल ८६)। ३ न.
विअट्टि मप्रमारिणतः 'विभट्ट विसंवमं विअइ स्त्री [विगति] विगम, विनाश (ठा जंभाई (गा ३५२)।
(पाम कुमा ६,५८)। १-पत्र १६)
विसण वि [विवसन] वन-रहित, नग्न | विअट वि [विकृष्ट] १ दूर-स्थित । २ क्रिवि. विअइ देखो विगइ= विकृति (ठा १-पत्र विसय (प्राकृ ३२)
दूर (णाया १, १ टी-पत्र १)
दे] व्याध, बहेलिया (द ७, १६ राज)
मकवि +कटय 1१प्रकट करना। ७२)। विअइत्ता देखो विअत्त = वि + वर्तम् ।।
२ मालोचना करना। वियडेइ (ठा १० विअक्क सक [वि + तर्कय ] विचारना, विअइल्ल ([विचकिल] १ पुष्प-वृक्ष विशेष।
टी-पत्र ४८५)। कवकृ. वियडिज्जत विमर्श करना, मीमांसा करना । वकृ. विय२ न. पुष्प-विशेष (हे १; १६६; कप्पू: वा
(राज)। कंत, वियत्रमाण (सुपा २६४; उप २२० २३; कुमा)। ३ वि. विकच, विकसित | टो)
विअड वि [व्यद] लज्जित, लज्जा-युक्त (सरण) विअक्क पुंस्त्री [वितर्क] विमर्श, मीमांसा
णाया १, ८---पत्र १४३)। विअओलिअ वि [दे] मलिन (द ७,७२) (प्रौपा सम्मत्त १४१)श्री.का (सूत्र १, विअड वि [विवृत] खुला हुमा, अनावृत विअंग सक [ व्यङ्गय ] अंग से हीन । १२, २१ पउम ९३, ६)
(ठा ३, १-पत्र १२१, ५, २-पत्र करना-हाथ, कान प्रादि को काटना। विअकिय विििवर्किन] विमर्शित, विचा- ३१२) । "गिह न [गृह] चारो तरफ वियंगेइ (णाया १, १४.-पत्र १८५)। रित (सण)।
खुला घर, स्थान-मएडपिका (कप्पः कस) विअंग वि [व्यङ्ग] अंग-होन; वियंगमंगा' | विअक्ख सक [वि + ईक्ष ] देखना । वकृ. 'जाण न [यान] खुला वाहन, ऊपर से (पएह १, १-पत्र १८)| वियक्खमाण (प्रोषमा १८८).
खुला यान (णाया १, १ टी-पत्र ४३)
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org