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( ३४ ) उच्चारणों का और विभिन्न प्राकृत भाषाओं के व्याकरणों का कुछ-न-कुछ अलक्षित प्रभाव उनके कण्ठ-स्थित धर्म-ग्रन्थों की भाषा पर भी पड़ना अनिवार्य था। यही कारण है कि अंग-ग्रन्थों में, एक ही अङ्ग-प्रन्थ के भिन्न-भिन्न अंशों में और कहीं-कहीं तो एक ही अंग-ग्रन्थ के एक ही वाक्य में परस्पर भाषा-भेद नजर आता है। संभवतः भिन्न-भिन्न प्रदेशों की भाषाओं के प्रभाव से युक्त इसी भाषा-भेद को लक्ष्य में लेकर ख्रिस्त की सप्तम शताब्दी के ग्रन्थकार श्रीजिनदासगणि ने अपनी निशीथचूर्णि में अर्धमागधी भाषा का "अट्ठारसदेसीभासानिययं वा अद्धमागह" यह वैकल्पिक लक्षण किया है। भाषा-परिवर्तन के उक्त अनेक प्रबल कारण उपस्थित होने पर भी अंग-ग्रन्थों की अर्धमागधी भाषा में, पाटलिपुत्र के संमेलन के बाद से, आमूल वा अधिक परिवर्तन न होकर उसके बदले जो सूक्ष्म या अल्प ही भाषा-भेद हुआ है और सैकड़ों की तादाद में उसके प्राचीन रूप अपने असल आकार में जो संरक्षत रह सके हैं उसका श्रेय सूत्रों के अशुद्ध उच्चारण आदि के लिए प्रदर्शित पाप-बन्ध के उस धामिक नियम को है जो संभवतः पाटलीपुत्र के संमेलन के बाद निर्मित या दृढ़ किया गया था।
___ यहाँ पर प्रसंग-वश इस बात का उल्लेख करना उचित प्रतीत होता है कि समवायांग सूत्र में निर्दिष्ट अंग-ग्रन्थसम्बन्धी विषय और परिमाण का वर्तमान अङ्ग-प्रन्थों में कहीं-कहीं जो थोड़ा-बहुत क्रमशः विसंवाद और ह्रास पाया जाता है और अङ्ग-ग्रन्थों में ही बाद के उपाङ्ग-ग्रन्थों का और बाद की घटनाओं का जो उल्लेख दृष्टिगोचर होता है उसका समाधान भी हमको उक्त सम्मेलनों की घटनाओं से अच्छी तरह मिल जाता है।
*समवायाङ्ग सूत्र, व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र, औपपातिक सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र में तथा अन्यान्य प्राचीन जैन ग्रन्थों में जिस भाषा को अर्धमागधी नाम दिया गया है, "स्थानाङ्गसूत्र और अनुयोगद्वारसूत्र में जिस भाषा को 'ऋषिभाषिता' कहा
आ गया है और सम्भवतः इसी 'ऋषिभाषिता' पर से आचार्य हेमचन्द्र आदि ने जिस. भाषा की 'आ - (ऋषियों की भाषा), संज्ञा रखी है वह वस्तुतः एक ही भाषा है अर्थात् अर्धमागधी, ऋषिभाषिता
और आर्ष ये तीनों एक ही भाषा के भिन्न-भिन्न नाम हैं, जिनमें पहला उसके उत्पत्ति-स्थान से और बाकी के दो उस भाषा को सर्व-प्रथम साहित्य में स्थान देनेवालों से सम्बन्ध रखते हैं। जैन सूत्रों की भाषा यही अर्धमागधी, ऋषिभाषिता या आर्ष है। आचार्य हेमचन्द्र ने अपने प्राकृत व्याकरण में आर्ष प्राकृत के जो लक्षण और उदाहरण
१. समवायाङ्ग सूत्र, पत्र १०६ से १२५ । २. "जहा पन्नवणाए पढमए पाहारुद्देसए' ( व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र १, १-पत्र १६ )। ३. देखो, स्थानाङ्ग सूत्र, पत्र ४१० में वर्णित निलव-स्परूप । ४. देखो, पृष्ठ १६ में दिया हुआ समवायाङ्गसूत्र और पोपपातिकसूत्र का पाठ।
"देवाएं भंते ! कयराए भासाए भासंति ? कयरा वा भासा भासिजमारणी विसिस्सति ? गोयमा! देवाएं अद्धमागहाए भासाए भासंति, सावि य णं अद्धमागहा भासा भासिज्जमाणो विसिस्सति ।" (व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र ५, ४–पत्र २२१)। "से कि तं भासारिया ? भासारिया जे णं अद्धमागहाए भासाए भासंति' (प्रज्ञापनासूत्र १-पत्र ६२)। मगहद्धविसयभासारिणबद्धं अद्धमागह, अट्ठारसदेसीभासारिणययं वा अद्धमागह' (निशोथचूणि )। "पारिसवयणे सिद्धं देवाणं अद्धमागहा वाणी" ( काव्यालंकार की नमिसाधुकृतटीका २, १२) । "सर्वार्धमागधीं सर्वभाषासु परिणामिनीम् ।
सर्वपा सर्वतो वाचं सावंज्ञों प्ररिणदध्महे ।।" (वाग्भटकाव्यानुशासन, पृष्ठ २)। ५. "सकता पागता चेव दुहा भणितीमो आहिया ।
सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिता ॥” (स्थानाङ्गसूत्र ७-पत्र २६४)। "सक्या पायया चेव भणिईओ होंति दोएिण वा।
सरमंडलम्मि गिज्जते पसत्था इसिभासिआ॥" ( अनुयोगद्वारसूत्र, पत्र १३१ ) । ६. देखो, हेमचन्द्र-प्राकृतव्याकरण का सूत्र १, ३।
"प्रार्षोत्थमार्षतुल्यं च द्विविधं प्राकृतं विदुः" ( प्रेमचन्द्रतकंवागीश द्वारा काव्यादर्शटीका १, ३३ में अद्भुत किया हुआ पद्यांश )।
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