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२०२ पाइअसद्दमहण्णवो
ओलिंभा-ओवट्ट ओलिभा स्त्री [दे] उपदेहिका, दीमक (दे | ओलेहड वि [दे १ अन्यासक्त । २ तृष्णा- ओवअण न [अवपतन नीचे गिरना, अधः १,१५३, गउड)। । पर । ३ प्रवृद्ध दे १, १७२)।
पात (से ६, ७७; १३, २२)। ओलिभमाण देखो ओलिह।
ओलोअ देखो अवलोअ। वकृ. ओलोअंत, ओवइणी स्त्री [अवपातिनी] विद्या-विशेष, ओलिन्त त्रि [अलित, उपलित] लीपा | ओलोएमाण (मा५: गाया १,१६,१,१)। जिसके प्रभाव से स्वयं नीचे पाता है या हुआ, कृतलेप (पएह १,३; उवः पान दे ओलोट्ट सक[अप + लुठ ] पीछे लौटना । | दूसरे को नीचे उतारता है (सूत्र २, २) । १, १५८; औप)। | वकृ. ओलोट्टमाण (राज)।
ओवश्य वि [अवपतित] १ अवतीर्ण, नीचे ओलिती स्त्री [दे] खड्ग आदि का एक दोष | ओलोयण न [अवलोकन] १ देखना। २ |
आया हुआ (से ६, २८ प्रौप)। २ आ पड़ा (दे १, १५६)। दृष्टि, नजर (उप पृ १२७) ।
हुना, प्रा डा हुआ (से ६, २६)। ३ न. ओलिप्प न दे] हास, हँसी (दे १, ओलोयण न [अवलोकन] गवाक्ष, 'दिट्ठा
पतन (ग्रौप)। १५३)। | अन्नया तेरा प्रोलोयरणगएण' (मुख २, ६)।
ओवश्य पुत्री दे] तीन इन्द्रियवाला एक ओलिप्पंती स्त्री [दे] खड्ग प्रादि का एक | ओलोयणा स्त्री [अबलोकना] १ देखना ।
क्षुद्र जन्तु 'से किं तं तेइंदिया ? ते दिया असोदोष (६१. १:६)। २ गोपरगा, खोज (क )
गविहा पराणत्ता, तं जहाः-प्रोवश्या रोहिओलिह सक [अब + लिह. ] प्रास्वादन | ओल्ल दे] १ पति, स्वामी । २ दण्ड
गीया हत्थिसोंडा' (जीव १)। करना । कवकृ. ओलिज्ममाण (कप्प)। प्रतिनिधि पुरुष, राजपुरुष-विशेष (पिंग)। ओली सक [अव + ली] १ अागमन करना। ओल्ल देखो उल्ल = आद्र (हे, १, ८२, काप्र
ओवइय विऔपचयिक उपचित, परिपुट २ नीचे आना। ३ पोछे अानाः नीयं च
(राज)। काया प्रोलिति' (विसे २०६४)।
ओल्ल देखो उल्ल = पाय । प्रोल्लेइ (पि |
ले पि ओवगारिय बि [औपकारिक] उपकार करने ओली स्त्री [आली] पंक्ति, श्रेणी (कुमा)। १११)। वकृ. ओल्लंन (मे १३, ६६)।
वाला (भग १३, ६)। ओली स्त्री दे] कुल-परिपाटी, कुलाचार | कवकृ. ओल्लिज्जंत (गा ६२१);
ओवगारिय वि [औपकारिक] उपकार के ओल्ट्टण पुं[अवलटन] एक नरक स्थान
निमित्त का, उपकारार्थक (देवेन्द्र ३०६) । ओलुंकी स्त्री [दे] बालकों की एक प्रकार की (देवेन्द्र २८)।
ओवग्ग सक [अप + क्रम् ] १ व्याप्त ओल्लण न [आद्रेयण] गीला करना, भिजाना
करना। २ ढकना, आच्छादन करना । क्रीड़ा (दे १, १५३)। ओलुंड सक [वि+रेचय ] झरना, टपकना, (पि १११)।
प्रोदग्गइ, अोवग्गउ (से ४, २५, ३, ११)। बाहर निकालना । अोलुंडइ (हे ४, २६)1 ओल्लणी स्त्री [दे] माजिता, इलायची, दाल
ओवग्ग सक[उप + वल्ग , आ + क्रम् ]
१ आक्रमण करना। २ पराभाव करना । ओलुडिर घि [विरेचयित ] झरनेवाला
चीनी आदि मसाला से संस्कृत दधि (दे १, (कुमा)। १५४)।
प्रोवग्गइ (भवि) । संकृ. ओवग्गिवि (भवि)।
ओवग्गहिय वि [औपग्रहिक] जैन साधुनों ओलुप पुं[अवलोप मसलना, मर्दन करना |
ओल्लरण न [दे] स्वाप, सोना (दे १, १६३)।
__ के एक प्रकार का उपकरण, जो कारण
ओल्लरिअ वि [दे] सुप्त, सोया हुना (दे (गउड)।
१६३; सुपा ३१२)। ओलुंपअ पुंदे] तापिका-हस्त, तवा का |
विशेप से थोड़े समय के लिए लिया जाता है
(पब ६०)। हाथा (दे १, १६३)। ओल्लविद (शौ) नीचे देखो (पि १११; मृच्छ
ओवग्गिा वि [दे. उपवल्गित १ अभिभूत ओलुग्ग वि [अवरुग्ण] १ रोगी, बीमार १०५) ।
१ आक्रान्त (से ६, ३०; पान; सूर १३, (पाथ)। २ भग्न, नष्ट (परह १,१); आल्लिअ वि [आद्रित] पाद्र किया हुआ | 'सुक्का भुक्खा निम्मंसा अोलुग्गा अोलुग्ग- (गा ३३०, सरण)।
ओवघाइय वि [औपघातिक] उपघात करने सरोरा' (निर १, १)। | ओल्ली स्त्री [दे] पनक, काई; गुजराती में
वाला, पीड़ा उत्पन्न करनेवाला; 'सुयं वा ओलुग्ग वि [दे] १ सेवक, नौकर। २ 'ऊल' (चेइय ३७३)।
जइ वा दिळं न लविज्जोवघाइयं (दस ८)। निस्तेज, निर्बल, बल-हीन (दे १, १६४)। ओल्हव सक [वि + ध्यापय् ] बुझाना। ओवञ्च सक [ उप+व्रज ] पास जाना, ३ निश्छाय, निस्तेज (सुर २, १०२: दे १, ठंढा करना। कवकृ. ओल्हविजंत (स 'सुहाए प्रोवञ्च वासहर' (भवि)। १६४: स ४६६: ५०४)।
३६२) । कृ. ओल्हवेयव्य (स ३६२)। ओवट्ट अक [अप + वृत्] १ पीछे हटना । ओलुग्गाविय वि [दे] १ बीमार । २ विरह, ओल्हविअ वि [दे] देखो उल्हविय (सुर| २ कम होना, ह्रास-प्राप्त होना। वकृ. पीड़ित (वज्जा ८६)। १०, १४६)।
ओवटुंत (उप ७६२)। ओलुट्ट वि [दे] १ असंघटमान, असंगत। ओव न [दे] हाथी वगैरह को बाँधने के लिए ओवट्ट पुं [अपवर्त] १ ह्रास, हानि । २ मिथ्या, असत्य (दे १,१६४) । किया हुआ गत्तं (दे १, १४६)।
२ भागाकार, (विसे २०६२)।
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