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इस विश्व में जितने भी प्राणी हैं, सब अपने कृत कर्मों के कारण ही दुःखी होते हैं। उन्होंने जो कर्म किये हैं, जिन संस्कारों की छाप अपने पर उन्होंने पड़ने दी है, उनका फल भोगे बिना या अनुभव किये बिना उनका छुटकारा नहीं है।
--सूत्रकृताङ्ग ( १/२/१/४ ) सव्वे सयकम्मकप्पिया । कृत कर्मों के कारण ही सभी प्राणी विविध योनियों में भटकते हैं ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/२/३/१८) जं जारिसं पुत्वमकासि कम्म,
तमेव आगच्छति संपराए । भूतकाल में जैसा भी कुछ कर्म किया गया है, भविष्य में वह उसी रूप में उपस्थित होता है ।
—सूत्रकृताङ्ग ( १/५/२/२३) तुति पावकम्माणि, नवं कम्ममकुव्वओ । उसके पूर्वबद्ध पापकर्म भी विनष्ट हो जाते हैं, जो नये कर्मों का बन्धन नहीं करता।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१५/६ ) कम्मंचिणंति सवसा, तस्सुदयम्मि उ परव्यसा होंति ॥ रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगलइ स परव्यसो तत्तो॥
जीव कर्मों का बन्ध करने में तो स्वतन्त्र रहता है, लेकिन उनका उदय आने पर भोगने में वह पराधीन हो जाता है। जैसे कोई स्वेच्छा से वृक्ष पर चढ़ तो जाता है किन्तु प्रमादवश नीचे उतरते समय (गिरते समय ) परवश हो जाता है।
-बृहत्कल्पभाष्य ( २६८६) कम्मवसा खलु जीवा, जीववसाई कहिंचि कम्माइ। कत्थइ धणिओ बलवं, धारणिओ कत्थई बलवं ॥ कहीं जीव कर्म के अधीन होते हैं तो कहीं कम जीव के अधीन होते हैं ।
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