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जिस समय जीव जैसे-जैसे भाव करता है, वह उस समय वैसे ही शुभअशुभ कर्मों का बन्ध करता है ।
- उपदेशमाला ( २४) कम्माययणेहिं जीवा नेरइय जाव उववज्जति । जीव अपने ही कमों के कारण नरक यावत् देवयोनि में उत्पन्न होते हैं ।
-अन्तकृद्दशांग (६/१५/१८) कम्मणिमित्तं जीवो हिंडदि संसारघोरकांतारे । यह जीव कर्म के निमित्त से संसार रूपी विशाल वन में भटकता रहता है।
-बारहअणुवेक्खा ( ३७ ) कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि । किये हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं होता है ।
-उत्तराध्ययन (४/३) . गाढ़ा य विवाग कम्मुणो । पूर्वसंचित कर्मों के परिणाम-विपाक अत्यन्त प्रगाढ़ और भयानक होते हैं।
-उत्तराध्ययन ( १०४) कत्तारमेव अणुजाणइ कम्म । कर्म हमेशा कर्त्ता का अनुगमन करता है ।
-उत्तराध्ययन ( १३/२३) पदुद्दचित्तो य चिणाइ कम्म,
जं से पुणो होइ दुहं विवागे। जो प्रदूष-युक्त चित्तवाला व्यक्ति कर्म का बन्ध करता है, वही परिणामकाल में उसके लिए दुःख का हेतु बनता है ।
- उत्तराध्ययन ( ३२/३३ ) जमिणं जगई पुढो जगा, कम्मेहिं लुप्पन्ति पाणिणो ।
सयमेव कडेहिं गाहई, नो तस्स मुच्चेज्जऽपुट्टयं ॥ ७८ ]
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