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अहंकार सेल थंभ समाणं माणं अणपविट्टे जीवे ।
कालं करेइ णेरपइएसु उववज्जति ॥ पत्थर के स्तम्भ की तरह जीवन में कभी भी नहीं झुकनेवाला गर्व आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है ।
-स्थानाङ्ग ( ४/२) सयणस्स जणस्स पिओ, णरो अमाणी सदा हवदि लोए । णाणं जसं च अत्थं, लभदि सकज्जं च साहेदि ।।
निरभिमानी मनुष्य जन और स्वजन सभी को सदैव प्रिय लगता है। वह शान, यश और धन प्राप्त करता है, एवं अपना प्रत्येक कार्य सिद्ध कर सकता है ।
-भगवतीआराधना ( १३७६) माणविजए णं मद्दवं जणयई । अहंकार पर विजय प्राप्त कर लेने से नम्रता जाग्रत होती है ।
-उत्तराध्ययन ( २६/६८) अन्नं जणं खिसइ बालपन्ने। जो अपनी प्रज्ञा के अभिमान में दूसरों की अवज्ञा करता है, वह बालप्रज्ञ है।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१४) पन्नामयं चेव तवोमयं च, णिन्नामए गोयमयं च भिक्खू । आजीवगं चेव चउत्थमाहु, से पंडिए उत्तम पोग्गले से ॥
जो संयम-परायण भिक्षु प्रज्ञामद, तपोमद, गोत्रमद, और आजीविका-मद को पराजित कर देता है, वही पंडित और उत्तम देहधारी है।
-सूत्रकृताङ्ग (१/१३/१५) अन्नं जणं पस्सति बिंबभूयं । अभिमानी अपने अहंकार में दूसरों को सदैव परछाँईवत तुच्छ मानता है ।
-सूत्रकृताङ्ग ( १/१३/१८)
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