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जे ते अप्पमत्त संजया ते थे।
नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव-अणारंभा। आत्म-साधना में अप्रमत्त रहनेवाले साधक, न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की-वे सर्वथा अनारम्भ-अहिंसक रहते हैं।
-भगवतीसूत्र (१/१ ) सति पाणातिवाए अप्पमत्तो अवहगो भवति । एवं असति पाणातिवाए पमत्तताए वहगो भवति ॥ प्राणातिपात ( हिंसा ) होने पर भी अप्रमत्त साधक अहिंसक है, और प्राणातिपात न होने पर भी प्रमत्त व्यक्ति हिंसक है।
-निशीथचूर्णि (६२) पमायमूलो बंधो भवति। कर्मबन्ध का मूल, प्रमाद है ।
-निशीथचूर्णि (६६८६) घोरा मुष्टुत्ता अबलं सरीरं, भारंडपक्खी व चरेऽप्पमत्ते।
वक्त बड़ा ही भयंकर है और इधर प्रतिपल जीर्ण-शीर्ण होती हुई काया है। इसलिए साधक को सदैव अप्रमत्त होकर भारण्ड पक्षी के समान अप्रतिबद्ध होकर विचरण करना चाहिये ।
--उत्तराध्ययन (४/६) असंखयं जीविय मा पमायए, जरोवणीयस्स हु नत्थि ताणं । एवं विजाणाहिजणे पमत्ते, कं नु विहिंसा अजया गहिन्ति ॥
टूटने के छोर पर आया जीवन पुनः सांधा नहीं जा सकता, इसलिए प्रमाद मत करो। बुढ़ापा आने पर कोई शरण नहीं होता। प्रमादी, हिंसक और अविरत मनुष्य किसकी शरण लेंगे-यह विचार तुम्हें अच्छी तरह से कर लेना चाहिए।
-----उत्तराध्ययन (४/१) सुत्तेसुयावी पडिबुद्ध-जीवी । प्रबुद्ध साधक सोए हुए व्यक्तियों के बीच भी जागृत-अप्रमत्त रहे ।
-उत्तराध्ययन (४/६)
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